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________________ १७५ पा-पुराण न टरें पर तू ती मा बुद्धिमती है तोहि कहा सिखाव जो तू न जानती होय तो मैं कहूं ऐसा रकर या नेत्रनिके वस्त्रसे आंसू पोंछे बहुरि कहती भई-हे देवी ! यह स्थानक अाश्रयरहित है तो उठो शारे १.८. या पहाड निकट व ई गुफा होयहां दुष्ट जीवनिका प्रवेश न होय, तेरे प्रसून का समय आया है सो के एक दिन यत्न रहना तब यह गर्भके भारतें आकाशके मार्ग चलवे में असमर्थ सो भूमिपर मखीके संग गमन करती महा कष्टकरि पांव धरती भई । कैसी है वनी ? अनेक अजगनित भरी दुष्ट जीवनि नादकरि अत्यन्त भयानक अति सघन नानाप्रकारके वृक्षनिकरि सूर्य की किरण का भी संचार नाही, जहाँ मुईके अग्रभाग समान डाभकी अणी अनितीक्ष्ण जहां कंकर बहुन, माते हाथियों के समूह अर भीलोंके समूह बहुत हैं अर वनीका नाम मातंगमालिनी है जहां मनको भी गम्यता नाही तो मनुष्यकी कहा गम्यता ? सखी आकाशम र्गसे हायवेको समर्थ अर यह गर्भके भारकरि समर्थ नाहीं तातें सखी या प्रेमके बंधनसे बंधी शरीर की छाया समान लार लार चले है । अंजनी वनीको अतिभयानक देखकर कांपे है, दिशा भूल गई तब बसंतमाला राको अति व्याकुल जानकर हाथ पर.डकर कहती भई हे--स्वामिनी ! तू डरै मत, मेरे पाछे पीछे चली था। सब यह रखी के कांधेपर हाथ रख चली जाय, ज्यों २ डामकी अणी चुभै त्यों २ अति खेद सिन विलाप करती देहको कष्टसे धारती जल के नीझरने जे अति तीव्र वेगसंयुक्त बहैं तिनको अतिकष्ट से उतरती अपने जे सब स्वजन अति निर्दई तिनको अनि चितारती अपने अशुभ कर्मको वारंवार निंदती बेलोको पकड भयभीत हिरणी कैसे हैं नेत्र जाके, अंगविणे पसेव को धारती कांटोंसे वस्त्र लग लग जांय सो छुडावती, लहसे लाल होगये हैं चरण जाके, शोकरूप अग्निके दाहकरि श्यामताको धरती, पत्र भी हाले तो त्रासको प्राप्त होती, चलायमान है शरीर जाका, बारम्बार विश्राम लेती ताहि सखो निरंतर प्रियवाक्य कर धीर्य बंधावे सो धीरे २ अंजनी पहाडकी तलहटीतक आई. तहां आंसू भर बैठ गई । सखीसे कहती भई अब मुभम एक पग थरनेकी शक्ति नहीं, यहां ही रहूंगी मरण होय तो होय तर रही अत्यन्त म भरी महा प्रवीण मनोहर पचनकरि य.को शांति उपजाय नमस्कार कहती भई-हे देवी देख यह गुफा नजदीक ही है कृपाकर यहांतें उठकर वहां सुर से तिटो, यहां कर जीव विचरें हैं तोकों गमकी रक्षा करनी है ताते हठ मत कर । ऐसा कहा तक वह आतापकी भरी सखीके. वचनानकारि अर रुघन वनके भयकारि चलको उठी तब सखी हस्तावलम्बन देकर याको विषम भूमित निकासकर गुफाके द्वार पर ले गई। निा विचारे गुफामे बंटनेका भय होय सो ये दोनो बाहिर खडी विषम पापाणके उलंघकर उपजा है खेद जिनको, तात बट गई। वहाँ दृष्टि धर देस्या, कैसी है दृष्टि ? श्याम श्वेत आरक्त कमल र मान प्रभाको धरै सो एक पवित्र शिलापर विराजे चारण मुनि देखे । जो पल्यंकासन धरें नक ऋद्धिसंयुक्त निश्चल हैं श्वासोच्छवास जिनके, नासिकाके अग्रभागार घरी है दृष्टि जिनने शरीर र समान निश्चल है गोदप धरा है जो बामा हाथ ताके ऊपर दाहना हाथ समुद्र समान गंभीर अनेक उपमादोंसे विराजमान आत्मरकरूपका जो पर्याय स्वभाव जैसा lein Education International ForPrivateLPersonalise only. www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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