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________________ सतानोवां पर्न बैठा रामके चरणों की ओर है दृष्टि जाकी राम उठ कर आधे सिंहासन पर ले बैठे, शत्रुघ्न आदि सब ही राजा पर विराधित आदि सत्र ही विद्याधर यथा योग्य बैठे पुरोहित श्रेष्ठी मंत्री सेनापति सब ही सभामें तिष्ठे तब क्षण एक विश्रामकर रामचन्द्रने लक्ष्मणसे लोकापवादका वृत्तांत कहा, सुनकर लक्ष्मण क्रोध कर लालनेत्र भये अर योधावों को श्राज्ञा करी अवार मैं उन दुर्जनों के अन्त करवेको जाऊंगा पृथिवीको मृषावादरहित करूंगा जे मिथ्या वचन कहै हैं तिनकी जिह्वा छेद करूगा उपहारहित जो शील व्रतकी धरणहारी सीता वाकी जे निन्दा करें हैं तिनका क्षय करूगा । या भांति लक्ष्मण महाक्रोधरूप भये नत्र अरुण होय गये तब श्रीराम इन वचनोंसे शांत करते भये कि-हे सौम्य ! यह पृथिवी सागर पयंत उसकी श्रीऋपभदेवने रक्षा करी बहुरि भरतने प्रतिपालना करी अर इक्ष्वाकुवंशके तिलक भये जिनकी पीठ रण में रिपत्रोंने न देखी जिनकी कीर्तिरूप चान्दनीसे यह जगत शोभित है सो अपने वशमें अनेक यशके उपजावनहारे भए अब मैं क्षणभर पाप रूप रागके निमित्त यशको कैसे मलिन करू, अल्प भी अकीर्ति जो न टारिये तो वृद्धिको प्राप्त होय अर उन नीतिवान पुरुषों की कीर्ति इन्द्रादिक देवोंसे गाईये है । ये भोग वि. नाशीक तिनसे क्या जिनसे अकीर्ति रूप अग्नि कीर्तिरूप वनको वाले यद्यपि सीता सती शीलवन्नी निर्मल चित्त है तथापि इसको घरमें राखे मेरा अपवाद न मिटे यह अपवाद शस्त्रादिकसे हता न जाय यद्यपि सूर्य कमलोंके वनका प्रफुल्लित करणहारा है अति निमिरका हरणहारा है तथापि रात्रिके होते सूर्य अस्त होय है तैसे अपवाद रूप रज महा विस्तारको प्राप्त भई तेजस्वी पुरुषोंकी कांतिकी हानि करे है सो यह रज निवारनी चाहिए । हे भ्रान ! चन्द्रमा समान निर्मल गोत्र हमारा अकीर्तिरूप मेघमालासे आच्छादा जाय है सो न आछादा जाय यही मेर यत्न हैं जैसे सूके इथनके समूहमें लगी आग जलसे बुझाये बिना वृद्धिको प्राप्त होय है तैसे अकीर्तिरूप अग्नि पृथिवी में विस्तर है सो निवारे विना न मिटे यह तीर्थ का देवों का कुल महाउज्जल प्रकारा रूप है याको कलंक न लगे सो उपाय करो यद्यपि सीता महा निर्दोप शील नती है तथापि में तजूगा अपनी कीर्ति मलिन न करूंगा। तब लक्ष्मण कहता भया कैपा है लदमण ? रामके स्नेहमें तत्पर है बुद्धि जिसकी । हे देव ! सीताको शोक उपजावना योग्य नाही, लोक तो मुनियोंका भी अपवाद करे है, जिन धर्म का अपवाद ऋरे हैं, तो क्या लोकापवादसे धर्म तजिये है ? तैसे लोकापबाद मात्र मे जान की कैपे तजिरे जो सब सतियोंके सीस विराज है कार प्रकार निंदाके योग्य नाहीं अर पापी जीव शीलवन्त प्राणियों की निन्दा करे हैं क्या तिनके वचनसे शीलानोंको दोष लागे है वे निर्दोष ही हैं, ये लोक अविवेकी हैं इनके वचन में परमार्थ नाहीं विपकर दुषित हैं नेत्र जिन के वे चन्द्रमाको श्यामरूप देखे हैं परन्तु चन्द्रमा खेत ही है श्याम नाहीं तैने लोकोंके कहे निकलंकियों को कलंक नाहीं लगे हैं जे शोलसे पूर्ण हैं तिनको अपना आत्मा ही साक्षी है पर जीवनिका प्रपोजन नाहीं । नीव जीवनिक श्रावादकरि पण्डिा विवेकी क्रोधको , न प्राप्त होंय जैसे स्वानके भौंकनेते गजेन्द्र नाही कोप करे हैं । ये लोक विचित्रगति हैं तरंग समान है चेष्टा जिनकी परदोष कथवे में आसक्त सो इन दुष्टोंका स्वयमेव ही निग्रह होयगा जैसे कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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