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पद्म पुरण "यथा राजा तथा प्रजा'यह वचन है। या भांति दुष्टचित्त निरंकुश भए पृथिवी में अपवाद करे हैं तिनका निग्रह करो हे देव ! आप मर्यादाके प्रवर्तक पुरुषोत्तम हो, एक यही अपवाद, तिहारे राज्यमें न होता तो तिहारे यह राज्य इन्द्रसे भी अधिक है। यह वचन विजय के सुनकर क्षणएक रामचन्द्र वि. पादरूप मुद्गरके मारे चलायमान चित्त होय गए चित्त में चिंतवते भए-यह कौन कष्ट पडा मेरा यशरूप कमलोंका वन अपयशरूप अग्निकर जलने लगा है जिस संताके निमित्त मैं विरहका कष्ट सहा सो मेरे कुलरूप चन्द्रमाको मलिन करे है अयोध्यामें मैं सुख हे निमित्त पाया अर सुग्रीव हनूमानादिकसे मेरे सुभट सो मेरे गोत्ररूप कुमुदिनीको यह सीता मलिन करे है। जिसके निमित्त मैंने समुद्र तिर रणसं. ग्राम कर रिपुको जीता सो जानकी मेरे कुलरूप दर्पण गोकलुपित करें है अर लोक कहे हैं सो सांच हैदुष्ट पुरुपके घर में तिष्ठी सीता मैं क्यों लाया अर सीताके मेरा अतिप्रेम जिसे क्षणमात्र न देखू तो विरहकर आकुलता लहूं पर वह पतिव्रता मोसे अनुरक्त उगे कैसे तज जो सदा मेरे नेत्र अर उरमें वस महागुणवंती निर्दोष सीता सती उसे कैसे तजू अथवा स्त्रियोंके चित्तकी चेष्टा कोन जाने जिनमें सब दोषोंका नायक मन्मथ बसे है धिकार स्त्रीके जन्मको सर्वदोपोंकी खान श्रालापका कारण निर्मल कुल में उपजे पुरुषोको कर्दम समान मलिनताका कारण है, अर जेसे कीच में फसा मनुष्य तथा पशु निकस न सके तैसे स्त्रीके रागरूप पंकमें फसा प्राणी निकस न सके, यह स्त्री समस्त बलका नाश करणहारी है अर रागका आश्रय है अर बुद्धिको भ्रष्ट करे है पर सत्यते पटकवेको खाई समान है निर्वाण सुखकी विघ्न करणहारी ज्ञानकी उत्पत्ति निवारणहारी भवनमरणका कारण है भस्मसे दवी अग्निसमान दाहक हे डांभकी सूई समान तीक्ष्ण है देखने मात्र मनोव्य परन्तु अपवादका कारण ऐपी सीता उसे में दुख दूर करके निमित्त तजू जैसे सर्प कांपलीको तुजे फिर चिंतये हैं जिसकर मेरा हृदय तीत्रस्नेह के बंधनकर वशीभूत सो कैसे तजी जाय, यद्यपि मैं स्थिर हूं तथापि यह जानकी निकटवर्तिनी अग्निकी ज्वला समान मेरे मनको भाताप उपनाये है अर यह दूर रही भी मेरे मनको मोह उपनाये जा चन्द्ररेखा दही से कुमुदिनी को विकमित करे, एक ओर लोकापवादका भय अर एक और सीताके भार स्नेह का भय अर सग कर विकल्पक सागरमें पडा हूं अर सीता सर्व प्रकार देवांगनासे भी श्रेष्ठ महापतित्रता सती शीलरूपिणी मोसे सदा एकचित्त उसे कंसे तजू जो न तजू तो अपकी प्रगट होय है इस पृथिवी में भायमान और दीन नाही स्नेह घर अपवादका भय उसमें लगा है मन जिसका, दोनोमी मित्रताका लीव विस्तार वेगकर वशीभूत जो सम सो अपवादरूप तीन ऋरको प्राप्त भए, सिंहकी है जा सके ऐसे राम तिनके दोनों बातोंकी अति कुलतारूप चिंता असानाका कारण दुस्सह आताग उसजापती भई जैसे जे ठके मध्यान्हका सूर्य दुस्सह दाह उपजावे ॥ इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी आपा वनिकाविण राम
लोकापवादका चिंताका करनेवाला छियानवेत्रां पर्व पूर्ण भया ।। ६६ ।। अथानन्तर श्रीराम एकाग्र चित्तकर द्वारवाल को लक्ष्मण के बुनाचनेकी आज्ञा करते भये सो द्वारपाल लक्ष्मण गया आज्ञा प्रमाण तिनको कही, लवण द्वारपालक वचन सुनकर तत्क्षाल तेज तुरंग पर चाह सम निकट आया हाथ जोड नमस्कारकर सिंहासन के नीचे पृथिवीपर
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