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________________ छियानवेधा पर्व लयनिमें अनेक प्रकारके वादिन बजवाये मानों मेघ ही गाजै हैं अर भगवानके चरित्र पुराण आदिके ग्रंथ जिनमन्दिरनिमें पधराये पर त्रैलोक्यके पाठ पमो परणके पाठ द्वीप समुद्रांतके पाठ प्रभुके मन्दिरों में पथराये पर दूध, दही, घृत, जल, मिष्टानके भरे कलश अभिषेककों पठाये अर सब खोजाओं में प्रधान जो खोजा सो वस्त्राभूपण पहरे हाथी चढा नगरमें घोपणा फेरे जाको जो इच्छा होय सो ही लेयो । या भांति विधिपूर्वक दान पूजा उत्सव कराये, लोक पूजा दान तप आदिमें प्रवर्ते पापबुद्धिरहित समाधानको प्राप्त भये । सीता शांतचित्त धर्ममार्गमें अनुरक्त भई अर श्रीरामचंद्र मण्डपमें आय तिष्ठे । द्वारपालने जे नगरीके लोक आये हुते ते रामसे मिलाये । स्वर्ण रत्न कर निर्मापित अद्भुत सभाको देख प्रजाके लोक चकित होय गये, हृदयको आनन्दके उपजाबनहारे राम तिन को देखकर नेत्र प्रसन्न भये । प्रजाके लोक हाथजोड नमः स्कार करते भये, कांपे है तन जिनका अर डरे है मन जिनका । तब राम कहते भए हे लोको ! तिहारे आगमका कारण कहो । तब विजय सुराजि मधुमान वसुन पर काश्या पिंगल काल क्षेम इत्यादि नगरके मुखिया मनुष्य निश्चल होय चरण निकी तरफ चौंके, गल गया है गर्व जिनका राजतेजके प्रताप कर कछु कह न सके । यद्यपि चिरकालमें सोच सोच कहा चाहें तथापि इनके मुखरूप मंदिरसे पाणीरूप वधू न निकसे । तब समने बहुत दिलासा कर कही-तुम कौन अर्थ आये हो सो कहो । या भांति कही तोभी वे चित्राम कैसे होय रहे कछु न कहैं लज्जारूप फांसकर बंधा है कंठ जिनका अर चलायमान हैं नत्र जिनके जैसे हिरण के बालक व्याकुलचित्त देखें तैसे देखें । तब तिनमें मुख्य विजय नाम पुरुष चलायमान है शब्द जिसका सो कहता भया हे देव ! अभयदानका प्रसाद होय । तब रामने कही-तुम काहू बातका भय पत करो तिहारे चित्त में जो होय सो कहो, तिहारा दुःख दूरकर तुमको साता उपजाऊंगा, तिहारे प्रोगन न लूमा, गुण ही लूगा जैसे मिले हुए दूध जल तिनमें जलको टार हम दधही पावे है । श्रीरामने अभयदान दीया तो भी अतिकप्टसे विचार २ धीरे स्वर कर विजय ह थ जोड सिर सिवाय वहना भया कि हे नाथ नरोत्तर ! एक वीनती सुनो-अब सकल प्रजा मर्यादारहित प्रवत है । यह लोक स्वभा. वहीसे कुटिल हैं अर एक दृष्टांत प्रगट पावें तब इनको अकार्य करने में कहा भय ? जैसे बानर सहज ही चपल है अर महा चपला जो यंत्रपिंजरा उसपर चढा तब कहा कहना । निर्बलकी योजनधन स्त्री पापी बलबंन छिद्र प य बनातार हरे हैं पर कोईयक शीलवती विरहकर पराये घर अत्यंत दुखी होय हैं तिनको कोईयक सहाय पाय अपने घर ले आवे हैं सो धर्मकी मर्यादा जाय है, यह न जाय सो यत्न करो, प्रजाके हितकी वांछा करो जिस विधि अजाका दुख टरे सो करो या मनुष्य लोसमें तुम बडे राजा हो तुम समान अर कौन तुम ही जो प्रजाकी रक्षा न करोगे तो कौन करेगा। नदियोंके तट तथा वन उपवन कूप वापिका सरोवर के तीर माम ग्राममें घर घर में सभामें एक यही अपवाद की कथा है और नाही कि श्रीराम राजा दशरथके पुत्र सर्व शास्त्र में प्रवीण सो रावण सीताको हर ले गया ताही घरमें ले आये तब औरोंको कहा दोष है ?जो डेब हरुष करें सो सब जगतको प्रमाण जिस रीति राजा प्रवर्ते उसही रीति प्रजा प्रवर्ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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