SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ पद्म-पुराण क्षीरसागरमें रमै तहां क्रीडाकर जलतै बाहिर आये, दिव्य सामिग्रीकर विधिपूर्वक सीतासहित जिनद्रकी पूजा करते भए, राम महा सुन्दर अर वनलक्ष्मी समान जे बल्लभा तिनकर मडित ऐसे सोहते भये मानो मूर्तिवन्त वसत ही है। आठ हजार राणी देवांगना समान तिन सहित राम ऐसे सोहैं मानों ये तारानिकर मंडित चन्द्र ही हैं अमृतका आहार अर सुगधका विलेपन मनोहर से ज मनोहर आसन नानाप्रकारके सुगंध माल्यादिक स्पर्श रस गध रूप शब्द पांचों इन्द्रियनिक विषय अति मनोहर रामको प्राप्त भए, जिनमंदिरमें भलीविधि नृत्य पूजा करी, पूजा प्रभावनायें राम के अति अनुराग होता भया, सूर्यहूते अधिक तेजके धारक राम देवांगनासमान सुन्दर जे दारा तिन सहित कैयक दिन सुखसे वनमें तिष्ठे। इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै जिनंद्रपजाकी सीताकू अभिलाषा गर्भका प्रादुर्भाव गर्णन करनेवाला पिचाणवेवां पर्वा पूर्ण भया ।। १५ ॥ अथानन्तर प्रजा के लोक रामके दर्शन की अभिलापा कर वनही में आये जैसे तिसाये पुरुष सरोवरपै आयें, तब बाहिरले दरवानने लोकोके श्रावने का वृत्तान्त द्वारपालीयोंसे कहा। वे द्वारपाली भीतर राजलोकमें रामसे जायकर कहती भई कि-हे प्रभो ! प्रजाके लोक पाके दर्शनको आये है अर सीताके दाहिनी आंख फुरकी, तब सीता विचारती भई-यह आंख मुझे क्या कहे है ? कछू दुःखका आगमन बतावै है। आगे अशुभकं उदय कर समुद्र के मध्यमें दुख पाये तो हू दुष्ट कर्म संतुष्ट न भया क्या और भी दुख दीया चाहे है ? जो इस जीवने रागद्वेषके योग कर कर्म उपार्जे हैं तिन का फल ये प्राणी अवश्य पाये है कार कर निधारा न जाय तय सीता चिंतावती होय और राणीनिसे कहती भई-मेरी दाहिनी आंख फाकनेका फल कहो! तब एक अनुमतिनामा राणी महाप्रवीण कहती भई-हे देवि ! या जीवन जे कर्म शुभ अथवा अशुभ उपार्जे हैं वे या जीव को भले बुरे फल के दाता हैं, कमसीको काल कहिये अर विधि कहिये अर दैव कहिये ईश्वर भी कहिये, सब संसारी जीव कर्मनिके आधीन हैं, मिद्ध परमेष्ठी कर्मनिसे रहित हैं। बहुरि गुणदोषकी ज्ञाता राणी गुणमाला सीताको रुदन करती देख धीर्य बंधाय कहती भई-हे देवी! तुम पतिके सबनिमें श्रेष्ठ हो, तुमको काहू प्रकार दुःख नाहीं अर और राणी कहती भई-बहुत विचारकर कहा ? शांतिकर्म करो, जिनेन्द्र का अभिषेक अर पूजा करायो अर किम इच्छक दान देवो जाकी जो इच्छा होय सो ले जाबो, दान पूजाकर अशुभका निवारण होय है तातें शुभ कार्यकर अशुभको निवारो । या भांति इन्होंने कही तर सीता प्रसन्न भई घर कही-योग्य है, दान पूजा अभिषेक श्रर तप ये अशुभके नाशक हैं दानधर्भ विघ्नका नाश:: वैरका नाशक है पुण्यका अर यशका मूल कारण है। यह विचारकर भद्रकलश नामा भंडारीको बुलाय कर कही-मेरे प्रसूति होय तोलग फिमिच्छक दान निरन्तर देवो । तर भद्रशालाराने कही जो आप आज्ञा करोंगी सोही होयगा, यह कहकर भंडारी गया अर जिनपूजादि शुभक्रिया प्रवरता, जितने भगवानके चेत्यालय है तिनमें नाना प्रकार के उपकरण चढाये अर सब चेत्या. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy