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बत्तीसवा पद रज से रहित होय परम विभूति आरोग्यता पावे अर जो गीत नृत्य वादित्रादिकर जिनमन्दिरविणे उत्सव करे सो स्वर्ग में परम उत्साहको पावे अर जिनेश्वरके चैत्यालय करावै सो ताके पुण्य की महिमा कौन कह सके, सुरमन्दिरके सुख भोग परम्पराय अविनाशी धाम पावे अर जी जिनेन्द्रकी प्रतिमा विधिपूर्वक करावे सो सुरनरके सुख भोग परम पद पावे । व्रत विधान तप दान इत्यादि शुभ चेष्टानिकरि प्राणी जे पुण्य उपारजे हैं सो समस्त कार्य जिन बिंव करावनेके तुल्य नाहीं, जो जिनविम्ब करावे सो परम्पराय सिद्धपद पावे अर जो भव्य जिनमन्दिरके शिखर चढावै सो इन्द्र धरणंद्र चक्रवादिक सुख भोग लोकके शिखर पहुंचे अर जो जीर्ण जिनमंदिरनिकी मरम्मत करावे सो कर्मरूप अजीर्णको हर निर्भय निरोग पदको पावे अर जो नवीन चैत्यालय कराय जिनविय पधराय प्रतिष्ठा कर सो तीन लोकविष प्रतिष्ठा पावै अर जो सिद्ध. दंत्रादि तीर्थों की यात्रा करे सो मनुष्य जन्म सफल करे अर जो जिनप्रतिमाके दर्शनका चितवन करे ताहि उपवासका फल होय अर दर्शनके उद्यमका अभिलाषी होय सो बेलाका फल पावै अर जो चैत्यालय जायवेका प्रारम्भ करे ताहि तेलाका फल होय अर गमन किए चौलाका फल होय अर कछुक एक आगे गए पंच उपवासका फल होय, आधी दूर गए पक्षोपवासका फल होय अर चैत्यालयके दर्शनते मासोपवासका फल होय अर भाव भक्तिकर महास्तुति किए अनन्त फल प्राप्ति होय, जिनेंद्रकी भक्ति समान और उत्तम नाहीं अर जो जिन सूत्र लिखवाय ताका प्या. ख्यान करें करावें पढ़ें पढ़ावें सने सुनावें शास्त्र निकी तथा पंडितानिकी भक्ति करें वे सांगके पाठी होय केवल पद पावें। जो चतुर्विध संघ की सेवा करे सो चतुर्गतिके दुःख हर पंचम गति पावें। मुनि कहै हैं हे भरत ! जिनेन्द्रकी भक्तिकर कर्म क्षय होय अर कर्म क्षय भए अक्षयपद पावे ये वचन मुनिके सुन राजा भरत प्रणामकर श्रावकका व्रत अंगीकार किया। भरत बहुत अतिधर्मज्ञ मह विनयवान श्रद्धावान चतुर्विध संघको भक्तिकर अर दुखित जीवोंको दयाभावकर दान देता मया, सम्यग्दर्शन रतनको उरमें थरता भया, अर महासुन्दर श्रावकके व्रतविष तत्पर न्यायसहित राज्य करता भया ।
भरत गुणनिका समुद्र ताका प्रताप अर अनुराग समस्त पृथिवीविष विस्तरता मया, ताके देवांगना समान ड्योढ सौ राणी तिनविष आसक्त न भया, जलमें कमलकी न्याई मलिले रहा, जाके चित्त में निरंतर यह चिंता वरते कि कब यतिके व्रत धरू तप करू निग्रंथ हुवा पृथिवी में विचरू । धन्य हैं वे पुरुष जे थीर सर्व परिग्रहका त्याग कर तपके बल कर समस्त कर्मको भस्म कर सारभूत नो निर्वाणका सुख सो पावे हैं, मैं पापी संसारमें मग्न प्रत्यक्ष देखू हूँ जो यह समस्त संसारका चरित्र क्षणभंगुर है। जो प्रभात देखिये सो मध्याहविर्ष नाहीं, मैं मृढ होय रहा हूंजे रंक विषयाभिलाषी संसारमें राचे हैं ते खोटी मृत्यु मरें हैं, सर्प व्याघ्र गज जल अग्नि शख विद्युत्पात शलारोपण असाध्य रोग इत्यादि कुरीति से शरीर तजेंगे यह प्राणी अनेक सहस्रों दुख का भोगनहारा संसार विष भ्रमण कर है बड़ा आश्चर्य है अल्प आयुमें प्रमादी होय रहा है जैसे कोई मदोन्मच चीर समुद्र के तद सूता तरंगों के समूह से न डरे वैसे मैं मोहकर उन्मच भव भ्रमण
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