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________________ १३४ पद्म-पुराण तत्र समस्त बन्धु जन कर नगरके रक्षक तथा पुरजन सब ही दर्शनके अभिलाषी भेंट ले ले सन्मुख आए र रावणकी पूजा करते भए, जे बड़े हैं तिनकी रावणने पूजा करी, रावणको सकल नमस्कार करते भए र बड़ोंको रावण नमस्कार करता भया । कैयकों को कृपादृष्टि से, कैकोंको मंदहास्यसे, कैयकों को वचनोंसे रावण प्रसन्न करता भया । बुद्धिके बलसे जाना है सबका अभिप्राय जिसने । लंका तो सदा ही मनोहर है परन्तु रावण बड़ी विजय कर आया त अधिक समारी है, ऊचे रत्नोंके तोरण निरमापे, मंद मंद पवन कर अनेक वर्णकी ध्वजा फर हरे हैं, कुंकुमादि सुगन्ध मनोज्ञ जल कर सींचा है समस्त पृथिवीतल जहां और सब ऋतुके फूलोंसे पूरित है राजमार्ग जहां श्रर पंच वर्ण रत्नोंके चूर्ण कर रचे हैं मंगलीक मांडने जहां र दरवाजों पर थांभे है पूर्ण कलश कमलोंके पत्र पर पल्लवसे ढके, संपूर्ण नगरी वस्त्राभरण कर शोभित है जैसे देवोंसे मंडित इन्द्र अमरावती में आवै तैसे विद्याधरों कर वेढा रावण लंका में पा, पुष्पक विमान में बैठ, देदीप्यमान है मुकट जाका, महारत्नोंके बाजूबंद पहिरे निर्मल प्रभा कर युक्त मोतियों का हार वक्षस्थल पर धारे, अनेक पुष्पोंक समूह कर विराजित, मानों बसंतही का रूप है सो उसको दर्ष मे पूर्ण नगर के नर नारी देखते देखते तृप्त न भए असीस देय हैं नाना प्रकारके वात्रि के शब्द हो रहे हैं जय जयकार शब्द होय है श्रानन्दसे नृत्यकारिणी नृत्य करे हैं इत्यादि हर्षसंयुक्त रावणने लंकामें प्रवेश किया, महा उत्साहकी भरी लंका उसे देख रावण प्रसन्न भए बंधुजन सेवकजन सब ही आनन्दको प्राप्त भए । रावण राजमहल में अ. ए । देखो भव्य जीव हो कि रथनूपुःके धनी राजा इन्द्रने पूर्व रायके उदय से समस्त वै रयोंके समूह जीत कर सर्व सामग्री पूर्ण दिन को तृणवत ज न सर्वको जीनकर दोनों का राज बहुत वर्ष किया इंद्रके तुल्य विभूतिको प्राप्त भया अर जब पुरुष क्षीण भया तब सकल विभूति विलय हो गई | रावण उसको पड़कर लंका में ले आया तार्तें मनुष्यके चपल सुखको धिक्कार हो यद्यपि स्वर्गलोकके देवोंका विनाशीक सुख है तथापि आयु पर्यंत और रूप न होय अर जब दूसरी पर्याय पावै तब और रूप होय अर मनुष्य तो एक ही पर्यायमें अनेक दशा भोगे तातें मनुष्य होय जे मायाका गर्व करे हैं ते मूर्ख हैं अर यह रावण पूर्व पुण्यसे प्रवल वैरियों को जीत कर अति वृद्धिको प्राप्त भया । यह जानकर भव्य जीव सकल पाप कर्मका त्याग कर शुभ कर्म ही को अंगीकार करो । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा व निकाविषे इंद्रका पराभव नाम बारहवां पर्व पूर्ण भयः ॥ १२ ॥ श्रथानन्तर इंद्रके सामन्त धनीक दुःखसे व्याकुल भए तत्र हन्द्रा पिता सहस्रार जो उदासीन श्रावक है तासौं वीनती कर इंद्रके छुडावने के अर्थ सटरको लेकर लंका में रावण के समीप गये । द्वारपाल से बीनती कर इन्द्रके सफल वृत्तांत कहकर रावणक टिंग गए, रावणने सहसरको उदासीन भाषक जानकर बहुत विनय किया, इनको शासन दिया, आप सिंहासनसे उतर बैठे, सहस्रार रावखको विवेकी जान कहता मया - हे दशानन ! तुम जगजीत दो सो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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