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तेरहवां पर्व
१३५ इंद्रको भी जीता तुम्हारी भुजाओंकी सामथ्र्य अत्रने देखी, जे बड़े राजा ते नववंतोंका गर्व दूरकर फिर कृपा करें, तात अब इंद्रको छोड़ो यह सहस्रारने कहीं अर जे चारों लोकपाल तिनके मुंहसे भी यही शब्द निकमा मानों मत्सरका प्रतिशब्द ही कहते भए तब रावण सहस्रारको तो हाथ जोड़ यही कही जो आप कहो सोई होगा अर लोकपालोंसे हंस कर क्रीडारूप कही तुम चारो लोकपाल नगरीमें बुदोरी देवो, कमलोंका मकरंद अर तृण कंटकरहित पुरी करो अर इन्द्र सुगन्ध जलकर पृथ्वीको सींचे कर पांच वर्ण के सुगन्ध मनोहर जो पुष्प तिनसे नगरी को शोभित करो यह बात जब रावणने कही तब लोकपाल तो लज्जावान होय नीचे हो गए अर सहस्रार अमृतरूप वचन बोले-हे धीर ! तुम जिसको जो आज्ञा करो सो ही वह करे, तुम्हारी आज्ञा सर्वोपरि है यदि तुम सारिखे गुरुजन पृथ्वीके शिक्षादायक न हों तो पृथ्वी के लोक अन्यायमार्गविष प्रवरतें, यह वचन सुनकर रावण अति प्रसन्न भए अर कही-हे पूज्य! तुम हमारे सात तुल्य हो अर इंद्र मेरा चौथा भाई, इसको पायकर मैं सकल पृथ्वी कंटकरहित करूंगा इसको इंद्रपद वैसा ही है और यह लोकपल ज्योंके त्यों ही हैं अर दोनों श्रेणीकेराज्यसे अर अधिक चाहो सो लेह मोमें अर इसमें कछु भेद नहीं अर आप बड़े हो गुरुजन हो जैसे इंद्रको शिक्षा देवो तैसे मुझे देवी ' तुम्हारी शिक्षा अलंकाररूप है पर आप रथनू पुरविष विर को अथवा यहां निराजा, दोऊ आप ही की भू मे हैं ऐसे प्रिय बचनोंसे स.सारका मन बहुत संतापा तब सहस्रार कहने लगा हे भव्य ! तुम सारिखे सज्जन पुरुषोंकी उत्पत्ति सर्व लोकको आनन्दकारिणी है । हे चिरंजीव ! तुम्हारे शूरवीरपनेका आभूषण यह उत्तम विनय समस्त पृथ्वीमें प्रशंसा को प्राप्त भया है तिहारे देखनेसे हमारे नेत्र सुफल भए । धन्य तुम्हारे माता पिता जिनसे तुम्हारी उत्पत्ति भई कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल तुम्हारी कीर्ति तुन समर्थ अर क्षमावान दातार अर निर्गर्व ज्ञानी अर गुणप्रिय तुम जिनशासनके अधिकारी हो। तुमने हमको जो कही यह तुम्हारा घर है अर जैसे इंद्र पुत्र तैर मैं, सो तुम इन बातोंके लायक हो, तुम्हारे मुखसे ऐसे ही वचन झरें, तुम महाबाहु दिग्गजकी सूड समान भुजा तिहारी, तुम सारिखे पुरुष इस संसारविष विरले हैं परन्तु जन्मभूमि माता समान है सो छांडी न जाय, जन्मभूमिका वियोग चिचको श्राकुल वर है, तुम सर्व पृथ्वीके पति हो परन्तु तुमको भी लंका प्रिय है । मित्र बान्धव अर समस्त प्रजा हमारे देखनेके अभिलाषी श्रावनेका मार्ग देखे हैं तातें हम रथनू पुर ही जायेंगे अर चित्त सदा तुम्हारे समीप ही है। हे देवनके प्यारे ! तुम बहुत काल पृथ्वी की निर्विघ्न रक्षा करो। तब रावणने उसही समय इन्द्रको बुलाया और सहस्रारके लार किया पर आप रावण कितनिक दूर तक सहस्रारको पहुंचाने गये और बहुत विनयकर सीख दीनी ।
- सहस्रार इन्द्रको लेकर लोकपाल सहित विजयागिरि पर आए सर्व राज ज्योंका त्योंही है लोकपाल आयकर अपने २ स्थानक बैठे परन्तु मान भंगसे अमाता को प्राप्त भए, ज्यों २ विजयार्धके लोक इन्द्रके लोकपालोको और देवोंको देखें त्यों २ यह लज्जा कर नीने हो जाय अर इन्द्रके भी न तो स्थ रमें प्रीति न राणियोंमें प्रीति, न उपवनादिमें प्रीति, न लोकपालोंमें
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