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पा-पुराण
प्रीति, न कमलोंके मकरंदसे पीत होरहा है जल जिनका ऐल मनोकर सरोवर तिनमें प्रीति और न किसी क्रीड़ा विष प्रीति, यहांतक कि अपने शरीरसे भी प्रीति नहीं, लज्जाकर पूर्ण है चिर जाका सो उसको उदाम जान लोक अनेक विधिकर प्रसन्न किया चाहें और कथाके प्रसंगसे वह बात भुनाया चाहे परंतु ये भूले नहीं, सर्व लीला पिलात तजे। अपने राजमहलके मध्य गंधमादन पर्वतके शिखर समान ऊचा जो जिनमंदिर उपके एक थंभके माथेविष रहै कांतिरहित हो गया है शरीर जिसका, पंडितोफर मण्डित यह विचार कर है कि धिक्कार है इस विद्याधर पदके ऐश्वर्यको जो एक क्षणमात्रविर्ष विलाय गया जैसे शरद ऋतुके मेघोंके समूह अत्यन्त ऊंचे हो परन्तु क्षणमात्र विष विलय जांय तैसे वे शस्त्र वे हाथी वे शोधा वे तुरंग समन्त ऋण समान हो गए, पूर्षे अनेक बेर अद्भुत कार्यके करणहारे। अथवा कर्मों की यह विचित्रता है कौन पुरुष अन्यथा करनको समर्थ है ताते जगतमें कर्म प्रबल हैं मैं पूर्व नानाविधि भोग सामग्रियों के निपजावनहारे कर्म उपजे थे सो अपना फल देकर खिरि गए जिससे यह दशा वरते है रण संग्रामविषे शूरवीर सामन्तों का मरण होय तो भला जिस कर पृथ्वीविषे अपयश न होय । मैं जन्म से लेकर शत्रु रों के शिरपर चरण देकर जिया सो में इन्द्र शत्रु । अनुचर होयकर कैसे राज्य लनी भोगू तात अा संरके इन्द्रियजनित सुखोंकी अभिलाषा तजकर मोक्षपद की प्राप्तिके कारण जे मुनिबत तिनको अंगीकार करू । रावण शत्रका भेष धर मेरा महामित्र आया जिसने मुझे प्रतिबंध दिया । मैं असार सुख के आस्वादविणे आशक्त था ऐसा विचार इन्द्रने किया उस ही समय निर्वाणसंगम नामा चारण मुनि विहार करते हुए आकाश मार्गस जाते थे सो चैत्यालयके प्रभावकर उनका आगे ममन न हो सका ना वह चैत्यालय जान नीचे उतरे, भगवान के प्रतिबिंबका दर्शन किया मुनि चार ज्ञानके धारक थे सी उनको राजा इन्द्रने उठकर नमस्कार किया मुनिके समीप जा बैठा बहुत दे तक अपनी निंदा करी, सर्व संसारका वृत्तांत जाननेहारे मुनिने परम अमृतरूप वचनोंसे इन्द्रको समाधान किया-कि हे इंद्र ! जैसे अरहटको घड़ी भरी रीती होय है अर रीती भरी होय है तैसे यह संसारकी माया क्षणभंगुर है इसके और प्रकार होने का आश्चर्य नहीं, मुनिके मुख से धर्मोपदेश सुन इन्द्रने अपने पूर्वभन पूछे तब मुनि कहै हैं कैसे हैं मुनि ? अनेक गुणोंके समूहसे शोभायमान हैं । हे राजा ! अनादिकालका यह जीव चतुरगतिविङ्ग भ्रमण वर है जो अनन्तभव धरै सो केवल ज्ञानगम्य हैं । कैयक भव कहिए हैं सो सुन, शिखापद नाया नगर में एक मानुषी महादलिद्रनी जिसका नाम कुलवंती सो चीपड़ी अमनोज्ञ नेत्र नाक चिपटी अनंक व्याधिको भरी पापकर्मके उदयसे लोगोंकी जूठ खायकर जीवै खोटे वस्त्र अभागिनी फाटा अंग महा रूक्ष सोटे केश जहां जय वहां लोक अनादरै हैं जिसको कहीं मुख नहीं । अन्तकालविणे शुभमति होय एक मुहूर्तका अनशन लिया ाण त्यागकर किंपुरुष देवकै शीलधरा नामा किन्नती भई तांसे चयबर रत्न नगरवि गोमुखनाना कलुबी उसके धरिनी नाभा स्त्री उसके सा सभाग न मा पुत्र भया सो परम सम्यक्त्वको पायकर श्रावकके व्रत आदरे, क्रिनामा नवना गवां उत्तम देव भया वांजे चयकर महा विदेह क्षेत्र के रत्नसंचय नगरमें
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