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________________ तेरहवां पर्व मणिनामा मंत्री उराके गुणावली नामा स्त्री उसके सामंतवर्धन नामा पत्र भया सो पिताके साथ वैराग्य अंगीकार किया अति तीव्र तप किए तत्वार्थविणै लगा है चित्त जिसका, निर्मल सम्यक्त्वका धारी, कषायरहित बाईस परीपह सहकर शरीर त्याग नवग्रीवक गया, अइमिंद्रके बहुत काल सुख भोगकर राजा सहस्रार विद्याधरके रानी हृदयसुन्दरी उनके तू इन्द्र नामा पुत्र भया। रथनूपुर नगरविणे जन्म लिया। पूर्वके अभ्यासकर इंद्रके सुखमें मन आसक्त भया सो तू विद्याधरोंका अधिपति इन्द्र कहलाया अब-तू पृथा मनविणे खेद करै है जो मैं विद्याविणे अधिक था सो शत्रवोंसे जीता गया सो हे इन्द्र ! कोई निर्बुद्धि कद् बोयकर वृथा शालिकी प्रार्थना करे हैं ये प्राणी जैसे कर्म करे हैं तैसे फल भोगे हैं तेने भोगका साधन शुभकर्म पूर्वे किया था सो दीण भया, कारण विना कार्य की उत्पत्ति न होय है इस बातका आश्चर्य कहा १ सूने इसी जन्मविणे अशुभ कर्म किए रिनसे यह अपमान रूप फल पाया अर रावण तो निमित्तमात्र है। तैंने जो अज्ञान चेष्टा करी सो कहा नहीं जाने है ? तू ऐश्वर्य मदकर भ्रष्ट भया बहुत दिन भए तातें तुझे याद नहीं आवै है। एकाग्रचित्त कर सुन । अरिंजयपुरमें वहिवेग नामा विद्याधर राजा उसकी रानी वेगवती पुत्री अहिल्या उसका स्वयम्बर मण्डप रचा था तहां दोनों श्रेणीके विद्याधर अति अभिलावी होय विभवसे शोभायमान गए अर तू भी बड़ी सम्पदासहित गया अर एक चन्द्रावर्त नामा नगरका धनी राजा अानन्दमाल सो भी तहां आया । अहिल्याने सवको तजकर उसके कण्ठविणे बरमाला डाली । कैसी है अहिल्या ? सुन्दर है सर्व अंग जिसका सो आनन्दमाल अहिल्या को परणकर जैसे इंद्र इन्द्राणीसहित स्वर्गलोकमें सुख भोगे तैसे ग्नमांछित भोग भोगता भया सो जा दिन। वह अहिल्या परणाया ता दिनसे तेरे इससे ईर्षा बही, तैने उसको अपना बड़ा वैरी जाना । कैरक दिन वह घरविणे रहा फिर उसको ऐसी बुद्धि उपजीं कि यह देह विनाशीक है इससे मुझे फछु प्रयोजन नहीं, अब मैं तप करू जिसकर संसारका दुःख दूर होय । ये इन्द्रियोंके भोग महाठग तिनविर्षे सुखकी आशा कहां ? ऐसा मनमें विचारकर वह ज्ञानी अन्तरआत्मा सर्व परिग्रहको तजकर परम तप आचरता भया । एक दिन हंसावली नदीके तीर कायोत्सर्ग धर तिष्ठ था सो तैने देखा ताके देखनेनात्र रूप ईधनकर बढ़ी है क्रोधरूप अग्नि जाके सो ते मूर्खने गर्वकर हांसी करी अहो अनि दमाल ! तू कामभोगविष अति आसक्त था अहिल्याका रमण अब कहा विरक्त होर पहाड़ तारिखा तिश्चल तिष्ठा है । तत्त्वार्थके चितवनविष लगा है अत्यन्त स्थिर मन जाका । या भांत परम मुनिकी तैने अवज्ञा करी सो वह तो आत्मसुखावणे मग्न, तेरी बात कुछ हृदयविष न धरी । उनके निकट उनका भाई कल्याण नामा मुनि तिष्ठ था ताने तुझे कही यह महामुनि निरपराब तैंने इनकी हांसी करी सो तेरा भी पराभव होगा तब तेरी स्त्री सर्वश्री सम्यग्दृष्टि साधुवोंकी पूजा करनहारी ताने नमस्कारकर कल्याणस्वामीको उपशांत किया जो वह शांत न करती तो तू तत्काल साधुवोंका कोपाग्निसे भस्म हो जाता। तीन लोकमें तप समान कोई बलवान नहीं जैसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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