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पभ-पुराण
साधुओंकी शक्ति है तैसी इन्द्रादिक देवोंकी शक्ति भी नाहीं । जो पुरुष साधु लोगोंका निरादर करें हैं ते इस भवमें अत्यन्त दुःख पाय नरक निगांद विषे पड़े हैं मनकर भी साधुओंका अपमान न करिए । जे मुनिजनका अपमान करे हैं सो इस भव अर परभवमें दुखी होय हैं । क्र रचिच मुनियोंको मार अथवा पीडा करें सो अनन्तकाल दुःख भोगे हैं । मुनिकी अवज्ञा समान और पाप नहीं। मन वचन कायकर यह प्राणी जैम कर्म करें हैं तैसे ही फल पावै हैं या भांति पुण्य पाप कर्मोंके फल भले बुरे जीव भोग हैं ऐसा जानकर धर्मविपै बुद्धिकर अपने आत्माको संसारके दुःखसे निवृत्त करो।
महामुनिके मुखसे राजा इन्द्र पूर्व व सुन आश्चर्यको प्राप्त भया । नमस्कारकर मुनिसे कहता भया--हे भगवान ! तुम्हारे प्रसादसे मैंने उत्तम ज्ञान पाया, अब सकल पाप क्षणमात्रविष दिलय गए, साधुओंके संगसे जगतविष कुछ दुर्लभ नहीं, तिनके प्रसादकर अनन्त जन्मविप न पाया जो आत्मज्ञान सो पाइए है। यह कहकर मुनिकी बारम्बार बंदना करी। मुनि आकाश मार्ग विहार कर गए । इंद्र गृहस्थाश्रमसे परम वैराग्यको प्राप्त भया । जलके बुदबुदा समान शरीरको असार जान धर्ममें निश्चय वुद्धिकर अपनी अज्ञान चेष्टाको निन्दना हुशाय. महापुरुष अपनी राजविभूति पुत्रको देकर अपने बहुत पुत्रोंसहित अर लोग पा जो नाहित तथा अनेक राजाओंसहित सवेकर्मका नाश करनहारी जिनेश्वर दीना आदी, सधे परिग्रहका स्लाम किया। निर्मल है चित्त जिसका, प्रथम अवस्थाविषे जैसा शरीर भागों में लगा था तैसा ही ताके समूहमें लगाया ऐसा तप औरोंसे न बन पड़े, पुरुषोंकी बड़ शक्ति है जैसी भागों में प्रवतै तैसे विशुद्धभावविष प्रवर्ते है। राजा इन्द्र बहुत काल तपकर शुक्लध्यानके प्रतापसे कर्मोका क्षय कर निर्वाण पथारे, गौतम स्वामी राजा श्रोणकसे कहै हैं-देखो ! बड़े पुरुषोंके चरित्र आश्चर्यकारी हैं प्रबल पराक्रमके धारक बहुत काल भोग भोगकर वैराग्य लेय अविनाशी सुखकों भोगवै हैं इसमें कुछ आश्चर्य नहीं। समस्त परिग्रहका त्यागकर मणमायविष ध्यानके बलसे मोटे पापोंका क्षय करे हैं जैसे बहुत कालसे ईधनकी राशि संचय करी सो क्षणमात्रमें अग्निके संयोगसे भस्म होय है ऐसा जानकर हे प्राणी ! आत्मकल्याणका यत्न करो, अन्तःकरण विशुद्ध करो, मृत्युके दिनका कुछ निश्चय नहीं, ज्ञानरूप सूर्यके प्रतापसे अज्ञान तिमिरको हरो। इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै
इन्द्रका निर्वाण गमन नामा तेरहवां पर्व पूर्व भया ।। १३ ।।
अथानन्तर रावण विभव और देवन्द्र समान भोगोंकर मूढ है मन जिसका गनबांछित अनेक लीला विलास करता भया । यह राजा इन्द्रका पकड़नहारा एक दिन सुमेरुपर्व ६. चैत्यालयों की बन्दनाकर पीछे आवता था, सप्त क्षेत्र, पट कुलाचल तिनकी शोभा देखता नाना प्रकारके वृक्ष नदी सरोवर स्फटिकमणि हूँ से निर्मल महा मनोहर अवलोकन करता हुआ सूर्यके भवन समान विमानमें विराजमान महा विभूतिस संयुक्त लंकाविणे आवनेका : मन जिसका तत्काल
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