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________________ १३६ alesai पर्व मा मनोहर उत्पाद सुनता भया तब मा हर्षवान होय मारीच मंत्रीको पूछता भया हे मारीच ! यह सुन्दर महानाद किसका है और दशोदिशा काहेसे लाल हो रही हैं। तब मारीचने कहा- हे देव ! यह केवलीकी गन्धकुटी है और अनेक देव दर्शनको आये हैं तिनके मनोहर शब्द हो रहे हैं और देवोंके मुकटादि किरणोंकर यह दशदिशा रंग रूप होय रही हैं इस पर्वतविषै वीर्य मुनि तिनको केवलज्ञान उपजा है । ये वचन सुनकर रावण बहुत आनन्दको प्राप्त भया । सम्यक् दर्शन कर संयुक्त है और इन्द्र का वरा करणहारा है महाकांतिका धारी से केवलही बन्दना के अर्थ पृथ्वी पर उारा, बन्दना कर स्तुति करी, इन्द्रादिक अनेक देव केवली के समीप बैठे थे, रावण भी हाथ जोड़ कर नमस्कारकर अनेक विद्याधर सहित उचित स्थानकमें तिष्ठा । 1 चतुरनिकाय के देव तथा तिर्यंच पर अनेक मनुष्य केवलीके समीप तिष्ठे हुते तासमय किसी शिष्यने पूछा— हे देव हे प्रभो ! अनेक प्राणी धर्म र धर्मके स्वरूप जाननेकी तथा तिनके फल जानने की अभिलाषा राखँ हैं अर मुक्तिके कारण जानना चाहें हैं सा तुम कहने योग्य हो सो कृपाकर कहो । तब भगवान केवलज्ञानी अनन्तवीर्य मर्याद रूप अक्षर, जिनमें विस्तीर्ण प्रति निपुण शुद्ध सन्देहरहित सर्वक हितकारी प्रिय वचन कहते भए - अहो भन् जीव हो ! यह जीव चेतनालक्षन अनादिकालका निरन्तर अष्ट कर्मोकर बंधा आच्छादित है आत्मशक्ति जिसकी सो चतुरगति में भ्रमण करें हैं। चौरासी लक्ष योजियोंमें नानाप्रकार इंद्रियों कर उपजी जो वेदना ताहि भोगता हुआ सदाकाल दुःखी होय रागी द्वेषी मोही हुआ कर्मोंके तीव्र मन्द मध्यम पावसे कुम्हारके चक्रवत् पाया हैं चतुरगतिका भ्रमण जानै, ज्ञानावरणी कर्म कर आदि हैं ज्ञान जिसका, अतिदुर्लभ मनुष्यदेह पाई तो भी आत्महितको नहीं जाने है रसनाका लोलुकी स्पर्श इन्द्रीका विपयी पांच इन्द्रियोंके वश भया अति निद्य पाकर्म कर नरकवि पड़े हैं जैसे पापाय पानी में डूबे हैं । कैसा है नरक ? अनेक प्रकार कर उपजे जे महा दुख तिनका सागर है महा दुखकारी है । जे पापी क्रूरकर्मा धनके लोभी मातापिता भाई पुत्र स्त्री मित्र इत्यादि सुजन तिनको हर्ने हैं जगतमें निद्य है चि जिनका ने नरकमें पड़े है तथा जे गर्भपात करें हैं तथा बालक हत्या करें हैं वृद्धको हणे हैं यवला (त्रियों ) की हत्या करे हैं मनुष्यों को पकड़े हैं के हैं बांधे हैं मरे हैं पक्षी तथा मृगनको हनैं हैं जे कुबुद्धि स्थलचर जलचर जीवों की हिंसा करें हैं धर्मरहित हैं परिणाम जिनका ते महा वेदनारूप जा नरक उसावेषै पढे हैं अर जे पापी शहद अथ मधु साखियोंका छाता तोड़े हैं तथा मांस आहारी मद्यपायी सहदके भक्षण करनेदारे बनके भस्म करनेहारे तथा ग्रामोंक बालनहारे बन्दीक करणहारे गायनके घेरनहारे पशुवाती महा हिंसक भील अहेड़ा वागरा पारथी इत्यादि पापी महा नरक में पड़े हैं अर जे मिथ्यावादी परदोष भाषणहारे अभक्ष के भक्षण करनेहारे परवनके हरनहारे परदाराके रमनेहरे वेश्याओंके मित्र हैं वे घोर नरक में पड़े हैं जहां किसीकी शरण नहीं, जे पापी मांसका मक्षग करें हैं वे नरक में प्राप्त होय हैं तहां तिनहीका शरीर काट काट तिनके मुखविषै दीजिये है भर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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