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पद्म पुराण
- निमित्त थकी विचित्रता लिए अन्यरूप प्रवरते हैं, यह रूपादिक विषय सुख व्याधिरूप विकल्प रूप मोहके कारण इनमें सुख नाहीं जैसे फोडा राघ रुधिरकर भरा फूले ताहि सुख कहां ? तैसे विकल्प रूप फोडा महा व्याकुलतारूप राधिका भरा जिनके है तिनको सुख कहां ? मिद्ध भगवान गतागतरहित समस्त लोक के शिखर विराजे हैं तिनके सुख समान दूजा सुख नाहीं जिनके दर्शन ज्ञान लोकालोकको देखें जाने तिन समान सूर्य कहां ? सूर्य तो उदय अस्तकू घरे है सकल प्रकाशक नाहीं, वह भगवान सिद्ध परमेष्ठी हथेली में श्रवले की नाईं सकल वस्तुको देखे जानें हैं, छद्मस्थ पुरुष का ज्ञान उन समान नाहीं, यद्यपि श्रवज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी मुनि अभागी परमाणु पर्यंत देखे * श्रर जीवन असंख्यात जन्म जाने है तथापि अरु पदार्थनको न जानें हैं अर अनन्तकाल की न जाने, केवली ही जाने, केवलज्ञान केव दर्शनकर युक्त तिन समान और नाहीं सिद्धनिके ज्ञान अनंत दर्शन अनंत र संसारी जीवनिके अल्पज्ञान अल्पदर्शन, सिद्धनिके अनन्त सुख अनन्त वीर्य र संसारनिके अल्पसुख अल्पवीर्य यह निश्चय जानो सिद्धनिके सुख की महिमा केवलज्ञानी ही जाने अर चार ज्ञानके धारक हू पूर्ण न जाने यह सिद्धपद अभव्योंको अप्राप्य है इम पदको निकट भव्य ही पावें । अभव्य अनन्त कालहू काय क्लेश करें अनेक यत्न करें तौहू न पावें, अनादि कालकी लगी जो अविद्यारूप स्त्री ताका विरह अभव्यनिके न होय, सदा अविद्या लिए भत्र वनमें शयन करें अर मुक्तिरूप स्त्री के मिलापकी वांछामें तत्पर जे भव्य जीव ते कैयक दिन संसार में रहें हैं सो संसार में राजी नाहीं तपमें तिष्टते मोत्र हीके अभिलाषी हैं। जिनमें सिद्ध होनेकी शक्ति नाहीं उन्हें अभव्य कहिए अर जे सिद्ध होनहार हैं उन्हें भव्य कहिए | केवली कहै हैं – हे रघुनन्दन जिनशासन विना और कोई मोक्षका उपाय नाही विना सम्यक्त्व कर्मनिका क्षय न होय, अज्ञानी जीव कोटि भवमें जे कर्म न खिपाय सके सो ज्ञानी तीन गुप्ति को घरे एक मुहूर्तमें खिपावे, सिद्ध भगवान परमात्मा प्रसिद्ध हैं सर्व जगतके लोग उनको जाने हैं कि वे भगवान हैं केवली विना उनको कोई प्रत्यक्ष देख जान न सकेँ, केवलज्ञानी ही सिद्ध निको देखें जाने हैं। मिथ्यात्वका मार्ग संसारका कारण या जीवने अनंत भवमें धारा । तुम निकट भव्य हो परम र्थ की प्राप्तिके अर्थ जिनशासन की अखण्ड श्रद्वा धारो। हे श्रेणिक, यह वचन सफल भूषण केवलीके सुन श्री रामचन्द्र प्रणाम कर कहते भए - हे नाथ, या संसार समुद्र तैं मोहि तारहु । हे भगवान्, यह प्राणी कौन उपायकर संचारके बातें छूटे हैं। तब केवली भगवान् कहते भए हे राम, सम्पदर्शन ज्ञान चारित्र मोत्रका मार्ग हैं जिनशासन में यह कहा है तचका जो श्रद्धान ताहि सम्यकदर्शन कहिए तत्व अनन्तगुणरूप है ताके दोन भेद हैं एक चेतन दूसरा अचेतन है । सो जीव चेतन है घर सर्व अचेतन हैं पर दर्शन दोय प्रकार उपजे है एक निसर्ग एक अधिगम | जो स्वतः स्वभाव उपजे सो निसर्ग अर गुरुके उपदेश उपजे सो श्रधिगम | सम्यकदृष्टि जीव जिनधर्म में रत है। सम्यक्त पत्र हैं— शंका कहिये जिनधर्म संदेह र कांक्षा कहिये भोगनि की अभिलापा र विचिकित्सा कहिये महामुनिको देख ग्लानि करनी र अन्यदृष्टि प्रशंसा कहिये मिथ्यादृष्टिको मनमें भला जानना श्रर संस्तव कहिये वचन
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