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________________ कमोपांचवा पळ गुण आदि अनन्त गुण सहित सिद्ध परमेष्ठी संभारके भावनसे रहित हैं सो दुःख तो उनको काहू प्रकारका नाहीं अर सुख कैसा है ? तब केवली दिव्यध्वनि कर कहते भये-इस तीन लोकमें सुख नाहीं दुख ही है अज्ञानसे वृथा सुख मान रहे हैं। संसारका इन्द्रियजनित सुख बाधासंयुक्त क्षण भंगुर है अष्ट कर्म कर बंधे सदा पराधीन ये जगत्के जीव तिनके तुच्छ मात्र ह सुख नाहीं जैसे स्वर्णका पिंड लोहकर संयुक्त होय तव स्वर्णकी कांति दब जाय है तैसे जीवकी शक्ति कर्मनिकर दब रही है सो सुखरूप नाही दुख ही भोगवे हैं यह प्राणी जन्म जरा मरण रोग शोक जे अनन्त उपाधी तिनकर महा पीडित हैं, तनुका अर मनका दुख मनुष्य तिर्यच नारकीनिको है अर देवनिको दुख मन ही का है सो मनका महा दुख है ता कर पीडित हैं । या संसार में सुख काहेका ? ये इन्द्रीजनित विषयके सुख इंद्र धरणींद्र चक्रवर्तीनिक शहतकी लपेटी खड्ग की धारा समान हैं अर विपमिश्रित अन्न समान हैं और सिद्धनिक मन इंद्री नाहीं शीर नाही केवल स्वाभाविक अविनाशी उत्कृष्ट निराबाथ निरुपम सुख है ताकी उपमा नाहीं जैसे निद्रा रहित पुरुषनिको सोयवे कर कहा अर नीरोगनिको औषधि कर कहा ? गैस सर्वज्ञ वीतराग कृतार्थ सिद्ध भगवान तिनको इन्द्रीनिके विषयनि कर कहा ? दीपकको सूर्य चन्द्रादिकर कहा ? जे निर्भय जिनके शत्रु नाही तिनके आयुधनिकर कहा ? जे सबके अंतर्यामी सबको देखें जाने जिनके सकल अर्थ सिद्ध भये कछु करना नाहीं बांछा काहू वस्तुकी नाही ते सुखके सागर हैं। इच्छ! मनसे होय है सो मन नाही आत्मा मुखमें तृप्त परम आनन्द स्वरूप क्षुधा तृषादि बाधा रहेत है तीर्थकर देव जा सुखकी इच्छा करें ताकी महिमा क हालग कहिये . हमिन्द्र इन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्र चक्रवर्त्यादिक निरंतर ताही पदका ध्यान करे हैं अर लोकांतिक देव ताही सुखके अभिलापी ताकी उपमा कहां लग करें। यद्यपि सिद्ध पदका सुख उपमारहित बंवली गम्य है तथापि प्रतिबोधके अर्थ तुमको सिद्धनिके सुखका कछु इक वर्णन करे हैं । अतीत अनागत वर्तमान तीन कालके तीर्थकर चक्रवादिक सर्व उत्कृष्ट भूमिके मनुष्य निका सुख पर तीन कालका भोगभूमिका सुख अर इंद्र अहमिंद्र आदि समस्त देवनिका सुख भूा भविष्या वर्तमान कालका सकन एकत्र करिए अर ताहि अनन्तगुणा फलाइए सो सिद्धनिके एक समयके सुख तुल्य नाही, काहेसे ? जो सिद्धनिका सुख निराकुल निर्मल अव्यावाध अखण्ड अतीन्द्रिय अविनाशी है अर देव मनुष्यनिका सुख उपाधिसंयुक्त बाधासहित विकल्परूप व्याकुलताकर भरा विनाशीक है अर एक दृष्टांत और सुनहु-मनु नितें राजा सुखी राजा नित चक्रवर्ती सुखी अर चक्रवर्तीनित वितरदेव सुखी अर वितरनिसे ज्योतिषी देव सुखी तिन” भवनवासी अधिक सुखी अर भवनवासीत कल्पवासी अर कल्पवासीनितें नवग्रीवके सुखी नव. ग्रीवतै नवअनुत्तरके सुखी अर तिनतें पंच पंचोत्तरके सुखी पंचोत्तर में सर्वार्थसिद्धि समान और सुख नाही सो सर्वाथसिद्धिके अहमिंद्रनित अनन्तानन्त गुणा सुख सिद्धपदमें है, सुख की हद्द सिद्रपद का सुख है अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान अनन्त सुख अनन्त वीर्य यह आत्मा का निज स्वरूप सिद्ध निमें प्रवर्ते है अर संसारी जीवनिके दर्शन ज्ञान सुख वीर्य कर्मनि के क्षयोपशमसे वाह्य वस्तुके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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