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पद्मपुराण
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याहार सो पाच मेरु संवन्धी पांच देव कुरु पांच उत्तर कुरु र हरि र रम्यक यह मध्य भोगभूमि तिनमें दोष पल्यकी आयु ए हार | भांति पांच मेरु संबन्धी पांच हरि पाँच रम्यक यह दश मध्य भोगभूमि पर हैमवत हैरण्यवत यह जघन्य भोग भूमि तिनमें एक पल्यकी आयु घर एक कोसकी काय एक दिनके अन्तरे आहार | सो पांच मेरु संबन्धी पांच हैमवत पांच हैरण्यवत जघन्य भोग भूमि दश । या भांति तीस भोगभूमि अढाई द्वीपमें जाननी कर पंच महाविदेह पंच भरत पंच ऐरावत यह पन्द्रह कर्म भूमि हैं तिनमें मोक्षमार्ग प्रवरते है ।
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अढाई द्वीप के आगे मामुपोत्तर के परे मनुष्य नाही, देव अर तिथंच ही हैं तिनमें जलचर तो तीन ही समुद्र में हैं लवणोदधि कालोदधि तथा अंतका स्वयंभूरमण इन तीन बिना और समु द्रनिमें जलचर नाहीं अर विकलत्रय जीव ढाई द्वीपमें हैं पर अंत का स्वयंभूरमण द्वीप ताके अर्थ भागमें नागेन्द्र पर्वत है, ताके परे आधे स्वयंभूरमण द्वीप में अर सारे स्वयंभूरमण समुद्र में विकलत्रय हैं | मानुषोत्तर से लेय नागेन्द्र पर्वत पर्यन्त जवन्य भोग भूमिकी रीति है, वहां तिर्यचनिकी एक पल्यकी आयु है और सूक्ष्म स्थावर तो सर्वत्र तीन लोक में हैं र बादर स्थावर यावार में सर्वत्र नाहीं । एकराजू में समस्त मध्य लोक है । मध्य लोकमें श्रष्टप्रकार व्यंर र दशप्रकार भवनवासीयोंके निवास हैं और ऊपर ज्योतिषी देवनके विमान हैं तिनके पांच भेद चन्द्रमा सूर्य ग्रह तारा नक्षत्र सो अढाई द्वीपमें ज्योतिषी चर हू हैं अर स्थिर हैं आगे असंख्यात द्वीपनिमें ज्योतिषी देवनके विमान स्थिर ही हैं बहुरि सुमेरुके ऊपर स्वर्ग लोक है वहां सोलह स्वर्ग तिनके नाम - सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेंद्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ठ शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार मानत प्राणत चारण अच्युत यह सोलह स्वर्ग तिनमें कल्पवासी देव देवी हैं र सोलह स्वर्गनिके ऊपर नवग्रीव तिनके ऊपर नव अनुतर तिनके ऊपर पंचोत्तर - विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित सर्वार्थसिद्धि | यह अहमिन्द्रनिके स्थानक हैं जहा देवांगना नाहीं श्रर स्वामी सेवक नाहीं और ठौर गमन नाहीं, अर पांचवां स्वर्ग ब्रह्म ताके अंत में लौकांतिक देव हैं सिनके देवांगना नाहीं वे देव हैं, भगवानके तप कल्याण में ही प्रावें । ऊर्ध्वलोक में देव ही हैं अथवा पंच स्थावर ही हैं । हे श्रेणिक ! यह तीन लोकका व्याख्यान जो केवलीने कहा ताका संक्षेप रूप जानना विस्तारम् त्रिलोकसारसू जानना तीन लोकके शिखर सिद्ध लोक हैं ता समान देदीसमान और क्षेत्र नाहीं जहां कर्म बंधनसे रहित अनन्व सिद्ध विराजे हैं मानो वह मोक्ष स्थानक तीन भवनका उज्ज्वल छत्र हीं है वह मोद स्थानक अष्टमी धरा है ये अष्ट पृथिवीके नाम-नारक १. भवनवासी २ मानुष ३ ज्योतिषी ४ स्वर्गवासी ५ ग्रीव ६ र अनुतर विमान ७ मोक्ष ८ ये आठ पृथिवी हैं सो शुद्धोपयोग के प्रसादकर जे सिद्ध भये हैं तिनकी महिमा कही न जाय तिनका मरण नाहीं बहुरि जन्म नाहीं, महा सुख रूप हैं, अनन्त शक्तिके धारक समस्त दुःखरहित महा निश्चल सर्व के ज्ञाता द्रश हैं ।
यह कथन सुन श्रीरामचन्द्र सकलभूषण केवलीस पूछते भये हे प्रभो ! अष्टकर्मरहित अष्ट
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