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तिरेपनबा पर्ण करें दूज रसम आजाय कमी वरसको छोडकर रसमें श्राजाय कहूं रसको छोडकर गिरसमें श्रा जाय । या जगत्गें इन कर्मनिकी अद्भुत चेष्टा है, संसारी सर्व जीव कर्मोके आधीन हैं। जैसे सूर्य दक्षणायनसे उत्तरायण आवे तैसे प्राणी एक अपस्थासे दूजी अवस्थामें आवे । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै हनूमानके
लंकासन्दरीका लाभ वर्णन करनेवाला वावनवां पर्व पूर्ण भया ।। ५२ ॥
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकतै कहै हैं हे श्रेणिक ! वह पवनका पुत्र महा प्रभावके उदय कर संयुक्त थोडे ही सेवकों महित निःशंक लंकामें प्रवेश करता भया । बहुरि प्रथम ही विभीषणके मन्दिरमें गया। विभीषणने बहुत सन्मान किया फिर क्षणएक तिष्ठ कर परस्पर वार्ता कर हनूमान कहता भया जो रावण आधे भरतक्षेत्रका पति सर्व का स्वामी ताहि यह कहा उचित जो दरिद्री मनुष्यकी न्याई चोरीकर परस्त्री लावै जे राजा हैं सो मर्यादाके मूल हैं जैसे नदीका मूल पर्वत, राजाही अनाचारी होय तो मर्व लोकमें अन्यायकी प्रवृत्ति होय ऐसे चरित्र किये राजाकी सर्व गोकमें निंदा होय तातै जगत्के कल्याण निमित्त रावणको शीघ्र ही कहो न्यायको न उलंघे । यह कहो-हे नाथ ! जगत् में अपयशका कारण यह कर्म है जिससे लोक नष्ट होय सो न करना तुम्हारे कुलका निर्मल चरित्र केवल पृथिवी पर ही प्रशंसा योग्य नहीं, स्वर्गमें भी देव हाथ जोड नमस्कार कर तुम्हारे बडों की प्रशंसा करे हैं। तुम्हारा यश सर्वत्र प्रसिद्ध है तब विभीषण कहता भय-मैं बहुत बार भाईको समझाया परंतु माने नहीं अर जिस दिनसे सीता ले आया उस दिनसे बातभी न करे तथापि तुम्हारे वचनसे मैं फिर दवाय कर कहूंगा परंतु यह हठ उससे छूटना कठिन है अर आज ग्यारवां दिन है, सीता निराहार है जल भी नाहीं लेय है तो भी रावण को दया नहीं उपजी, इस कानसे विरक्त नहीं होय है। यह बात सुनकर हनूमानको अति दया उपजी । प्रमदनामा उद्यान जहां सीता विराज है तहां हनूमान गया उस वनकी सुन्दरता देखता भया नवीन जे बेलोंके समू तिनसे पूर्ण और तिनके लाल पल्लव सोहें मानों सुन्दर स्त्रीके कर पल्लव ही हैं और पुष्पाक गुच्छा पर भ्रमर गुजार करें हैं और फलोंसे शाखा नम्रीभूत होरही हैं अर पवन से हाल हैं. कमला कर जहां सरोवर शोभित है और देदीप्यमान बेलोंस वृक्ष वेष्टित हैं मानों वह वन देववन समान है अथवा भोगभूमि समान है, पुष्पोंकी मकरन्दसे माण्डत मानों साक्षात् नन्दन वन है। अनेक अद्भुतताकर पूण हनूमान कमल लोचन वनकी लीला देखता संता सांताके दर्शन निमित्त आगे गया चारो तरफ वनमें अवलोकन किया सो दूर ही से सीताको देखा। सम्यकदर्शनसहित महासती उसे देखकर हनुमान मनमें चिंतवता भया-यह रामदेवकी परम सुन्दरी महासती निधूम अग्नि समान असुवनसे भर रहे हैं नेत्र जाके, सोच सहित बैठी मुखसे हाथ लगाय सिन्के केश विखर रहै है कृश है शरीर जिसका, सो देख कर हनूमान विचारता भया । धन्य रूप इस माताका लोकमें जीते हैं सर्वलोक जिपने मानों यह कमलसे निकसी लक्ष्मी ही विराजे है, दुखके समुद्रमें डूब रही
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