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________________ एकसीसत्तरहवा पर्व ५. में बैठे हैं उसका सोच क्यों न करें ? जो इनही की मृत्यु आई होंय अर और अमर हैं तो रुदन करना जब सबकी यही दशा है तो रुदन काहेका, जेते देहधारी हैं तेते सव कालके आधीन हैं सिद्ध भगवानके देह नाहीं तात मरण नाहीं यह देह जिस दिन उपजा उसही दिनसे काल इसके लेयवेके उद्यममें हैं यह सब संसारी जीवोंकी रीति है तात संतोष अंगीकार करो इष्टके वियोगसे शोक करे सो वृथा है शोक कर मरै तोभी वह वस्तु पीछे न आवै तातै शोक क्यों करिये देखो काल तो वज्रदण्ड लिए सिर पर खड़ा है अर संसारी जीव निर्भय भए तिष्ठे हैं जैसे सिंह तो सिर पर खडा है अर हिरण हरा तृग चरे है त्रैलोक्यनाथ परमेष्ठी पर सिद्ध परमेश्वर तिन सिवाय कोई तीन लोकमै मृत्युसे बचा सना नाहीं वेही अमर हैं और सब जन्म मरण करें हैं यह संमार विध्याचलके वन समान कालरूप दावानल समान बल है तुम क्या न देखो हो ?. यह जीव संसार वनमें भ्रमण कर अति कष्टसे मनुष्य देह पावे हे सो वृथा खोवै है काम भोगके अभिलाषी होय माते हाथीकी न्याई बंधनमें पडे हैं नरक निगोदके दुख भोगवे हैं कभी एक पवहार धर्मकर म्बर्गमें देव भी होय हैं आयुके अंतमें वहांसे पडे हैं जैसे नदीके ढाहेका वृक्ष कभी उखडे ही तेमे चरा गतिके शरीर मृत्युरूप नदीके ढाहेके वृक्ष हैं इनके उखाडवे का का आश्चर्य है, इन्द्र धरणेंद्र चक्रवर्ती आदि अनन्त नाशको प्राप्त भए जैसे मेषकर दावानल बुझ तैसे शांतिरूप मेषकर कालरूप दावानल बुझ और उपाय नाही पाताल में भूतल में पर स्वर्ग में ऐसा कोई स्थान नहीं जहां कालसे र बचे, छठे कालके अन्त इस भरत क्षेत्रमें प्रलय होयगी पहाड विलय हो जावेंगे तो मनुष्य की कहा वात ? जे भगवान तीर्थकर देव वजवृषभनारा वसंहननके धारक जिनके समचतुरस्त्रसंस्थानक सुर असुर नरों कर पूज्य जो किसी कर जीते न जांय तिनका भी शरीर अनित्य वेभी देह तज सिद्धलोकमें निज भावरूप रहै तो औरों का देह कैसे नित्य होय ? सुर नर नारक तिर्यचोंका शरीर केले के गर्भ समान असार हैं । जीव तो देहका यत्न करे हैं । अर काल प्राण हरे है जैसे बिलके भीतरसे गरुण सर्पको ले जाय तैसे यह देह के भीतरसे जीवको काल लेजाय है, यह प्राणी अनेक मूबोको रोवे है हाय भई , हाय पुत्र ,हाय मित्र या मांति शोक करे हैं पर कालरूप सर्प सवों को निगले हैं जैसे सर्ग मींडकको निगले, यह मूढ बुद्धि झूठे विकल्प करे हैं यह मैं किया यह मैं करू हू यह करूगा सो ऐसे विकल्प करता कालके मुखमें जाय है जैसे टूटा जहाज समुद्र के तले जाय, परलोकको गया जो सजन उसके लार कोई जाय सकें तो इष्टका वियोग कभी न होय जो शरीरादिक परसस्तु से स्नेह करे हैं सों क्लेशरूप अग्निमें प्रवेश करे हैं। पर इन जीवोंके इस संसारमें एते स्वजनों के समूह भए जिनकी संख्या नाही जे समुद्र की रेणुकाके कण तिनसे भी अपार हैं अर निश्चय कर देखिए तो इस जीवके न कोई शत्रु है न कोई मित्र है, शत्रु तो रागा. दिक हैं, अर मित्र ज्ञानादिक हैं। जिनको अनेक प्रकारकर लडाईये अर निज जानिए सो भी वैरको प्राप्त भया ताहिको महा रोषकर हणे जिसके स्तनों का दुग्ध पाया जिसकर शरीर वृद्ध भया ऐसी माताको भी हने हैं धिक्कार हैं इस संसारकी चेष्टाको जो पहले स्वामी था पर बार२ नमस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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