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________________ पद्म-पुराण रूप है अर इस शोकको पंडित ने बड़ा पिशाच कहा है, कर्मों के उदयसे भाइयोंका वियोग होय है, यह शोक निरर्थक है यदि शोक कीर फिर आगम हो तो शोक करिये यह शोक शरीरको शोखे है अ पापोंका बंध करे है महा मोहका मूल तातै इस बैरी शोकको तजकर प्रसन्न होय कार्य में बुद्धि धारो। यह अशनिवेग विद्याधर अति प्रबल बैरी है अपना पीछा छोड़ता नहीं, नाशका उपाय चिंतवे है इसलिये अब जो कर्तव्य हो सो विचारो बैरी बलवान होय तर प्रच्छन्न (गुप्त) स्थानमें कालक्षे करिये तो शत्रुमे अपमानको न पाईये फिर कैएक दिनमें बैरीका पल घटे तब बैरोको दवाईये, विभूति सदा एक ठौर नहीं रही है । तातें अपना पाताल लंका जो बड़ोंसे आसरे की जगा है सो कुछ काल वहां रहिये जो अपने कुल में बड़े हैं वे उस स्थानककी बहुत प्रशंसा करे हैं जिसको देखे स्वर्गलोकमें भी मन न लगे है तारों उठो वह जगा वैरियों से अगम्य है इस नाते राजा किडकन्यको गमा मुकेशीने बहुत समझाया तो भी शोक न छाडै तब राणी श्रीमाला को दिखाई उसके देखोसे शोक निवृत्त भया तब राजा सुकशी अर किहकंध समस्त परिवार सहित पाताल लंकाको चले : र अशनिवेगका पुत्र विच द्वाहन इनके पीछे लगा अपने भाई विजयनिके वैसे महा क्रोधवंत शत्रुक समूल नाश करनेको उद्यमी भया तब नीति शास्त्रके पाठियों जो शुद्ध बुद्धिके पुरुष हैं समझाया जो क्षय भागे तो उसके पीछे न लागेर राजा अशनिवेगने भी विद्युद्रा नलों कही जो अन्ध्रक । तुम्हारा भाई हता, गो तो मैं अन्ध्रकको रणमें मारा तातें हे पुत्र ! इस हठसे निवृत्त होवो, दुःखी पर दया ही करना उचित है, जिप कायाने अपनी पीठ दिखाई मो जीवित ही मृतक है उसका पीछा क्या करना, इस भांति अशनिवेगने विद्यद्वाहन को समझाया, इतने में राक्षसवंसी पाताल लंका जाय पहुंचे। कैसा है नगर रत्नोंके प्रकारसे शाम.यान ह तहां शोक अर हर्ष धन्ते दोऊ निर्भय रहैं। एक समय प्रशनिवेग शरदमें मेघपटल देख अर उनको विलय होते देख विषयोले विरक्त भए । चित्तावर्षे विचारा -यह राजसम्पदा क्षणभंगुर है मनुष्य जन्म अतिदुर्लभ हे सो मैं मुनिप्रत धर आत्मकल्याण करू ऐसा विचार सहस्रार पुत्रको राज देय आप मधु द्वाहनसहित मुनि भए अर लंकाविषै पहले अशनिवेगने निर्वातन मा विद्याधर थान राखा हुता सो अब सहस्रारको आज्ञा प्रमाण लंकाविणे थाने रहै। एक समय निर्धात दिग्विजयको निकमा सो सम्पूर्ण राक्षसद्धीपमें राक्षसोंका संचार न देखा सबही घुस रहे है सो निधात निर्भय लंकामें रहे । एक समय राजा किहकन्ध राणी श्रीमाला सहित सुरुपर्वतसे दर्शन कर अावे था, मार्गमें दक्षिण समुद्रक तटपर देवकुरु भोगभूमि समान पृथ्शी में करन रटनामा चन देखा, देखकर प्रसन्न भए अर श्रीमाला राणीसे कहते भए । राणीके सुन्दर वचन वीणाके स्वर समान हैं । देवी ! तुम यह रमणीक वन देखो। जहां वृक्ष फूलोंसे संयुक्त हैं निर्मल नदी बहे है अर मेघके आकार समान धरणीमाली नामा . पर्वत शोभे है पर्वतके शिखर ऊचे हैं अर कंदके पुष्प समान उज्ज्वल जलके नीझरने झरे हैं सो मानो यह पर्वत हंसे ही है अर वृक्षोंकी शाखासे पुष्प पड़े हैं मानों हमको पुष्पांजली ही देवे हैं पर पुष्पोंकी सुगन्धसे पूर्ण पवनसे हलते जो पक्ष उनसे मानों यह वन हमको उठकर ताजिम ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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