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________________ ६३ छठा पर्व करे है अर वृक्ष फलनिकरि नम्रीभूत होय रहे हैं सो मानो हमको नमस्कार ही करे हैं जैसे गमन करते पुरुषोंको स्त्री अपने गुणांस मोहितकर आगे जाने न दे है खड़ा करे है तैसे यह वन अर पर्वतकी शोभा हमको मोहित कर राखे हैं आगे जाने न दे हैं। मैं भी इस पर्वतको उलंघ आगे नहीं जाय सकूं इसलिये यहां ही नगर बसाऊंगा । जहां भूमिगो परियोंका गमन नहीं पाताल लंकाकी जगह ऊढी है वहां मेरा मन खेद खिन्न भया है सो अब यहां रहियेसे मन प्रसन्न होगा इस भांति राणी श्रीमालामों कहकर आप पहाड़से उतरे वहां पहाड़ ऊपर स्वर्ग समान नगर बसाया नगरका किहकंद्रपुर नाम पर वहां सर्व कुम् सहित निवास किया । राजा किकन्ध सम्यग्दर्शन संयुक्त है अर भगवानकी पूजामें सावधान है सो राजा विहन्यके राणी श्रीमाला के योग से सूर्यरज अर रचरज दा पुत्र भए र सूर्यकमला पुत्री भई जिसकी शोभासे सर्व विद्यावर मोहित हुए । अथानन्तरमेघपुरका राजा मेरु उसकी राणी मघा पुत्र मृगारिदमन उसने किहकंवकी पुत्री सूर्यकमला देखी सो आसक्त भया कि रात दिवस चैन नहीं तब उसके अर्थ वाके कुटुम्बके लोगोंने सूर्यकमला याची सो राजा किहकंधने राणी श्रीमालासे मन्त्र कर अपनी पुत्री सूर्यकमला मृगारिदमन का परलाई सो परणकर जावे या मार्ग में कर्णवस में कर्णकुण्डल नगर बसाया । और लंकापुर कहिए पात ल लंका उसमें सुक्श राजा इन्द्राणी नामा राखी उसके तीन पुत्र भये माली सुमाली पर माल्यवान् । बड़े ज्ञानी गुण ही हैं आभूषण जिनके, अपनी क्रीड़ामाता पिताका मन हरते भए देवों समान हैं क्रीड़ा तिनकी। तीनों पुत्र बड़ेभए महा बलवान सिद्ध भई हैं सर्व विद्या जिनको । एक दिन माता पिताने इनको कहा कि तुम क्रीड़ा करने को farayरकी तरफ जावो तो दक्षिण के समुद्री और मन जायो । तब ये नमस्कारकर माता पिताको कारण पूछने भए तब पिताने कहीं हे पुत्रो ! यह बात कहिवेकी नहीं। तब पुत्रोंने बहुत हठकर पूछी तः पिताने कही कि लंकापुरी अपने कुत्त हमसे चली यावे हैं श्री अजितनाथ स्वामी दूसरे तीर्थकर के समय से लगा कर अपना इस खंड में राज हैं आगे अशनि पर अपने युद्ध या सो परस्पर बहुत रं लंका थपनेसे छूटी। अशनिवेगने निर्घात विद्याधर थाने राखा सो महा वलवान है यर दूर है ताने देश देशमें हलकारे राखे हैं और हमारा छिद्र हरे है । यह पिता के दुखकी बर्ता सुनकर माली निश्वास नाखता भया र खोंसे आंसू निकसे, क्रोधसे भर गया है चित्त जिसका अपनी भुजाओंका बल देखकर पितासों कहता भया कि हे तात ! एते दिनों तक यह बात हमसे क्यों न कही तुमने स्नेहकर हमको ठगे, जे शक्तिवंत होयकर बिना काम किये निरर्थक गाजैं हैं वह लोक में लघुताको पावे हैं सो हमको निर्धानपर आज्ञा देवों हमारे यह प्रतिज्ञा है लंकाको लेकर और काम करें तब माता पिताने महावीर वीर जान इनको स्नेह दृष्टिसे आज्ञा दी तब यह पाताल लंका से ऐसे निकसे मानों पास ल लोकसे भवनवासी निकसे हैं बैरी ऊपर अति उत्साहसे चलें दोनों भाई शस्त्रकला में महा प्रवीण हैं समस्त राक्षसोंकी सेना इनके लार चली त्रिकूटाचल पर्वत दूरसे देखा, देखकर जान लिया कि लंका नीचे बसे हैं सो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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