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________________ सातव पर्व गाज वा अनेक गजेन्द्रोंके कुम्भस्थल विदारता हुआ परम तेजस्वी आकाश से पृथ्वीपर आय मेरे मुखमें होकर कुक्षिमें आया अर सूर्य अपनी किरणोंसे तिमिरका निवारण करता मेरी गोद में श्रतिष्ठा र चन्द्रमा अखण्ड है मण्डल जिसका सो कुमुदनको प्रफुलित करता र तिमिर को हरता हुआ मैंने अपने आगे देखा । यह अद्भुत स्नान मैंने देखे सो इनके फल क्या हैं? तुम सर्व जानने योग्य हो स्त्रियोंके पतिकी आज्ञा ही प्रभाव है। तब यह बात सुन राजा स्वप्नके फलका व्याख्यान करते भये । राजा अष्टांग निमित्तके जाननहारे जिनमार्ग में प्रवीण हैं । हे प्रिये ! तेरे तीन पुत्र होंगे जिनकी कीर्ति तीन जगत में विस्तरैगी बड़े पराक्रमी कुलके वृद्धि करणहारे पूर्वोपार्जित पुण्य से महासम्पदा के भोगनेहारे देवों समान अपनी कांति से जीता है चंद्रमा, अपनी दीप्तिसे जीता है सूर्य, अपनी गम्भीरता से जीता है समुद्र श्रर अपनी स्थिरतासे जीता है पर्वत जिन्होंने, स्वर्गके अत्यन्त सुख भोग मनुष्य देह धरेंगे महाबलवान जिनको देव भी न जीत सकें, मनवांछित दानके देनेहारे कल्पवृक्ष के समान, अर चक्रवर्ती समान ऋद्धि जिनकी अपने रूपसे सुन्दर स्त्रियोंके मन हरणहारे अनेक शुभ लक्षणोंकर मण्डित उतङ्ग है वक्षस्थल जिनका, जिनका नाम ही श्रवणमात्रसे महा बलवान बैरी भय मानेंगे तिनमें प्रथम पुत्र आठवां प्रतिवासुदेव होयगा महासाहसी शत्रुत्रोंके मुखरूप कमल मुद्रित करलेको चन्द्रमा समान । तीनों भाई ऐसे योद्धा होंगे कि युद्धका नाम सुनकर जिनके हर्षके रोमांच हवे, बड़ा भाई कछु एक भयङ्कर होगा जिस वस्तुकी हठ पकड़ेगा सो न छोड़ेगा । जिसको इन्द्र भी समझानेको समर्थ नहीं । ऐसा पत्रिका वचन सुनकर राणी परम हर्षको प्राप्त होय विनयसहित भरतारको कहती भई - हे नाथ ! हम दोऊ जिनमार्गरूप अमृतके स्वादी कोमलचित्त हमारे पुत्र क्रूरकर्मा कैसे होय ? हमारे तो जिन वचन में तत्पर कोमल परिणामी होना चाहिए । मृतकी बेलपर विषपुष्प कैसे लागे । तब राजा कहते भये कि हे बरानने ! सुन्दर है सुख जाका ऐसी तू हमारे वचन सुन । यह प्राणी अपने अपने कर्म के अनुसार शरीर धरे हैं इसलिये कर्म हो मूल कारण हैं, हम मूल कारण नही, हम निमित्त कारण हैं तेरा बड़ा पुत्र जिनधर्मी तो होयगा परन्तु कुछ इक क्रूरपरिणामी होयगा श्रर उसके दो लघु वीर महाधीर जिनमार्ग में प्रवीण गुण में पूर्ण भली चेष्टा के धारणहारे शीलके सागर होवेंगे । संसार भ्रमणका है भय जिनको, धर्ममें अति दृढ महा दयावान सत्य वचन के अनुरागी होवेंगे । तिन दो उनिके ऐसा ही सौम्यकर्मका उदय है, हे कोमलभाषिणी ! हे दयावती ! प्राणी जैसा कर्म करें हैं तैसा ही शरीर धरे है ऐसा कहकर वे दोनों राजा र राणी जिनेंद्रकी महा पूजाविषै प्रवरते । कैसे हैं ते दोनों ? रात दिवस नियम धर्म में सावधान हैं | अथानन्तर प्रथम ही गर्भ में रावण आये तब माताकी चेष्टा कुछ क्रूर होती भई यह वांछा भई कि बैरियोंके सिरपर पांव धरू। राजा इंद्र के ऊपर आज्ञा चलाऊ', विना कारण भोहें टेढी करणी, कठोर बाणी बोलना, यह चेष्टा होती भई । शरीरमें खेद नहीं, दर्पण विद्यमान है तौ भी खड्गमें मुख देखना, सखी जनसे खिझ उठना, किसीको शंका न राखनी ऐसी उद्धत चेष्टा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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