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तीसा पर्व
२५६ सुना, हंसकी पर्याय छोड दस हजार वर्षकी आयुका धारी नगोतम नामा पर्वतविष किन्नर देव भया। सहांते चयकर विदग्धपुरका राजा कुंडल मंडित भया सो पिंगलके पाससे चित्तोत्सवा हरी सो ताका सकल वृत्तांत पूर्वे कहा ही है अर वह बिमुचि ब्राह्मण जो स्वर्ग लोकको गया हुता सो राजा चन्द्रगति भया, अनुकोशा ब्रह्मणी पुष्पवती भई अर वह कयान कई भव लेग पिगल होय मुनिव्रत थार देव भया सो वाने भामंडल में होते ही हरा, पर वह ऊर्या ब्राह्मण देवलोक से चमकर राणी विदेहा भई । यह सकल वृतांत राजा दशरथ सुनकर भामंडल से मिला भर नेत्र प्रश्रपातसे भरलिए अर संपूर्ण सभा यह कथा सुनकर सजलनेत्र होय गई पर रोमांच होय आए अर सीता अपने भाई भामंडलको देख स्नेह कर मिली पर रुदन करती भई, कि हे भाई! मैं तो तोहि प्रथम ही देखा अर श्रीराम लक्ष्मण उठकर भामंडलते मिले, मुनिको नमस्कार कर खेचर भूचर सब ही वनसे नगरको आए । भामंडलम् मंत्र कर राजा दशरथने जनक राजाके पास विद्याधर पठाया अर जनकको प्रावनेके अर्थ विमान भेजे । राजा दशरथने भामंडलका बहुत सन्मान किया अर भामंडलको अतिरमणीक महिल रहिबेको दिए जहाँ सुन्दर वापी सरोवर उपवन हैं सो वहां भामण्डल सुखमू तिष्ठा, अर राजा दशरथने भामण्डलके श्रावनेका बहुत उत्सव किया, याचकोंको वांछासे भी अधिक दान दिया, सो दारिद्रते रहित भए अर राजा जनक निकट पवनहूते अति शीघ्र विद्याधर गए, जायकर पुत्रके आगमनकी बधाई दी अर दशस्थका अर भामण्डलका पत्र दिया सो बांचकर जनक अतिप्रानन्द को प्राप्त भया, रोमांच होय आए, विद्याधर राजा पूछे है-हे भाई ! यह स्वप्न है या प्रत्यक्ष है तू आ हमसों मिल, ऐसा कहकर राजा मिले अर लोचन सजल होय श्राए जैसा हर्ष पुत्रके मिलनेका होय तैसा पत्र लानेवालेते मिलनेका हर्ष भया । सम्पूर्ण वस्त्र आभूषण ताहि दिए सब कुटुम्बके लोग भेले होय उत्सव किया, अर बारम्बार पुत्रका वृत्तांत ताहि पूछे हैं अर सुन सुन तृप्त न होय । विद्याधर सकल वृत्तांत विस्तार कहा ताही समय राजा जनक सर्व कुटुंबसहित विमानमें बैठ अयोध्या.चले सो एक निमिषमें जाय पहुँचे कैसी है अयोध्या जहां वादित्रोंके नाद होय रहे हैं, जनक शीघ्र ही विमानसे उतर पुत्रसे मिला, सुखकर नेत्र मिच गए, क्षणएक मूळ आय गई बहुरि सचेत होय अश्रुपातके भरे नेत्रनिसों पुत्रको देखा पर हाथसे स्पर्शा पर माता विदेहा हुपुत्रको देख मूर्छित होय गई बहुरि सचेत होय मिली अर रुदन करती भई, जाके रुदनको सुनकर तियचोंको भी दया उपजे । हाय पुत्र, तू जन्मते ही उन्कृष्ट वैरीते हरागया हुता तेरे देखनेको चिंतारूप अग्नि कर मेरा शरीर दग्ध भया हुता सो तेरे दर्शनरूप जलकरि सींचा शीतल भया पर धन्य है वह राणी पुष्पवती विद्याधरी जाने तेरी बाललीला देखी अर क्रीडा कर धूसरा तेरा अंग उरसे लगाया अर मुख चूमा और नवयौवन अवस्थामें चन्दन कर लिप्त सुगन्धोंसे युक्त तेरा शरीर देखा ऐसे शब्द विदेहाने कहे अर नेत्रोंसे अश्रुपात झरे, स्तनोंसे दग्ध झरा अर विदेहाको परम आनन्द उपजा जैसे जिनशासनकी सेवक देवी प्रानन्द सहित तिष्ठे तैसे पुत्रको देख सुखसागरमें तिष्ठी । एकमास पर्यत यह सर्व अयोध्यामें रहे फिर भाम
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