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पा-पुराण मण्डल श्रीरामसे कहते भए-हे देव, या जानकीके तिहारो ही शरण है थन्य है भाग्य जाके नो तुम सारिखे पति पाए ऐसे कह बहिनको छातीसे लगाया अर माता विदेहा सीताको उर से लगायकर कहती भईहे पुत्री, तू सासू ससुरकी अधिक सेवा करियो अर ऐसा करियो जो सर्व कुटंबमें तेरी प्रशंसा होय सो भामण्डलने सबको बुलाया । जनकका छोटा भाई कनक उसे मिथिलापुरीका राज्य सौंपकर जनक अर विदेहाको अपने स्थानक लेगया। यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं कि--हे मगधदेशके अधिपति ! तू धर्मका माहात्म्य देख जो धर्मक प्रसादसे श्रीरामदेवके सीता सारिखी स्त्री भई गुणरूपकर पूर्ण जाका भामण्डल सा भाई विद्या. घरोंका इन्द्र अर देवाधिष्ठित वे धनुष सो रामने चढ़ाये अर जिनके लक्ष्मणसा भाई सेवक, यह श्रीरामका चरित्र भामण्डलके मिलापका वर्णन जो निर्मल चित्त होय सुनें उसे मनवांश्रित फलकी सिद्धि होय पर निरोग शरीर होय सूर्य समान प्रभाकू पावै । इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत मन्थ, ताकी भाषा बचनिकावि भोमण्डलका
मिलाप कथन बर्णन करनेबोलो तीसा पर्व पूर्ण भयो ।। ३ ।।
अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमम्वामीसों पूछते भए-हे प्रभो ! वे राजा दशरथ जगतके हितकारी राजा अनरण्यके पुत्र बहुरि कहा करते भए अर श्रीराम लदमणका सकल वृत्तांत मैं सुना चाहूंहूं सो कृपा करके कहो। तुम्हारा यश तीनलोकमें विस्तर रहा है । तब मुनियोंके स्वामी महातप तेजके धरनहारे गौतम गणधर कहते भए जैसा यथार्थ कथन श्री सर्वज्ञदेव वीतरागने भाष्या है तैसा हे भव्योत्तम! तू सुन---
जब राजा दशरथ बहुरि मुनियोंके दर्शनोंको गए तो सर्वभूतहित स्वामीको नमस्कार कर पूछते भए-हे स्वामी ! मैं संसारमें अनंत जन्म घरे सो कई भवकी वार्ता तिहारे प्रसादसे सुनकर संसारको सजा चाहूं हूं तब साधु दशरथको भव सुननेका अभिलाषी जानकर कहते भए है.राजन् ! सब संसारके जीव अनादि कालसे कर्मोके सम्बन्धसे अनन्त जन्म मरण करते दुःख ही भोगते आए हैं । इस जगतमें जीवनिके कर्मों की स्थिति उत्कृष्ट मध्यम जघन्य तीव प्रकारकी है अर मोक्ष सर्वमें उचम है जाहि पंचमगति कहे हैं सो अनंत जीवनिमें कोई एक होय है सबनिको नाहीं । यह पंचमगति कल्याणरूपिणी है जहांते बहुरि आवागमन नाही। वह अनंत सुखका स्थानक शुद्ध सिद्धपद इंद्रिय विषरूप रोगनिकरि पीडित मोहकर अन्य प्राणी ना पावें । जे तत्वार्थ श्रद्धानकर रहित वैराग्यसे वहिर्मुख हैं अर हिंसादिकमें है प्रति जिनकी तिनको निरन्तर चतुगेतिका भ्रमण ही है । अभव्योंको तो सर्वथा मुक्ति नाही निरन्तर भव भ्रमण ही है अर भन्यनिमें कोई एकको नित्ति है जहां तक जीव पुद्गल धर्म प्रधर्म काल है सो लोकाकाश है। अर जहां अकेला आकाश ही है सो अलोकाकाश है । लोकके शिखर सिद्ध विराजे हैं। या लोकाकाशमें चेतना लक्षण जीव अनंत हैं जिनका विनाश नाही, संसारी जीव निरन्तर पृथ्वी काय जलकाय अग्निकाय वायुकाय वनस्पतिकाय सकाय ये छै काय तिनमें
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