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sairaat पर्व २६१ देह, थार भ्रमण करे हैं। यह त्रैलोक्य अनादि अनन्त है यामें स्थावर जंगम जीव अपने अपने कर्मों के समूह कर बंधे नाना योनियों में भ्रमण करें हैं कार जिनराजके धर्मकर अनन्त सिद्ध भए र अनंत सिद्ध होंगे श्रर होय हैं। जिनमार्ग टारकर और मार्ग मोक्ष नाहीं । श्रर अनन्त - काल : व्यतीत भया पर अनंत काल व्यतीत होयगा । काल का अन्त नाही जो जीव सन्देहरूप कलंककर कलंकी हैं अर पापकर पूर्ण हैं पर धर्मनिको नाहीं जाने हैं, तिनके जैनका श्रद्धान कहते हो अर जिनके श्रद्धान नाहीं सम्यक्त्वरहित हैं तिनके धर्म कहते होय पर धर्मरूप वृक्ष विना, मोचफल कैसे पावै, अज्ञान अनन्त दुखका कारण है जे मिथ्यादृष्टि अथ विषै अनुरागी हैं पर अति उग्रपाप कर्मरूप कंचुकी ( चोला ) कर मंडित हैं, रागादि विपके भरे हैं तिनका कल्याण कैसे होय, दुख ही भोगवे हैं। एक हस्तिनापुर विषै उपास्तनामा पुरुष, ताकी दीपनी नाम्रा स्त्री सो मिध्याभिमानकर पूर्ण नाके कछु नियम व्रत नाहीं श्रद्धानरहित महाक्रोधवंती व्यदेखसकी कषायरूप विषकी धारणहारी महादुर्भाव निरन्तर साधुनिकी निंदा करणहारी कृशब्द बोलनहारी महाकृपण कुटिल श्राप काहूको अन्न न देय अर जो कोई दान करे ताकों मने करे, धनकी विरानी पर धर्म न जाने इत्यादिक महादोष की भरी मिथ्यामार्ग की सेवक सो पापकर्म के प्रभावकर भवसागर विषै: अनंत काल भ्रमण करती भई अर उपास्ति दानके अनुरागकर चन्द्रपुर नगरविषै भद्रनामा- मनुष्य ताके धारिणी स्त्री ताके धारणामा पुत्र भया । भाग्यवान बहुत कुटुंबी ताके नयनसुन्दरी नामा स्त्री सो धारण शुद्ध भावते मुनिनिको आहारदान देय अन्त काल शरीर वजकर धातुकी खंड द्वीपविषै उत्तरकुरु भोगभूमि में तीन पल्य सुख भोग देव पर्याय पाय तहांते चयकर पृथुलावती नगरीविषै राजा नंदीघोष राणी बसुधा ताके नंदिवर्धन नामा पुत्र भया । एक दिन राजा नंदिघोष यशोधर नामा मुनिके निकट धर्म श्रवणकर नंदिवर्धनको राज्य देव आप मुनि भया । महातपकर स्वर्गलोक गया कर नंदिवर्धन श्रावकके व्रत धारे, पंच नमोकारके स्मरणविषै तत्पर कोटि पूर्व पर्यंत महाराजा पदके सुख भोगकर अन्त काल समाधि मरणकर पांचवे देवलोक गया । तहांते चयकर पश्चिम विदेहविषे विजयार्थ पर्वत यहां शशिपुर नाम नगर वहाँ राजा रत्नमाली ताके राणी विद्युतलता ताके सूर्यजव नामा पुत्र भया । एक दिन रत्नमाली महाबलवान सिंहपुरका राजा वज्रलोचन ताम्रं युद्ध करने को गया । अनेक दिव्य रथ हाथी घोडे पियादे महापराक्रमी सामंत लार नानाप्रकार शस्त्रनिके धारक, राजा होठ डसता धनुष चढाय वस्त्र पहिरे स्थविषै आरूढ भयानक आकृतिको परे आग्नेय विद्याथर शत्रुके स्थानकको दग्ध करवेकी है इच्छा जाके, ता समय एक देव तत्काल आयकर कहता भया— हे रत्नमाली ! तैं यह कहा आरम्भा । अत्र तु क्रोध तज, मैं तेरा पूर्व भत्रका वृतांत कहूं हूं सो सुन - भरत क्षेत्र विषै गांधारी नगरी वहां राजा भूति, ताके पुरोहित उपमन्यु सो राजा अर पुरोहित दोनों पापी मांसभचो, एक दिन राजा केवलगर्भ स्वामी के सुख व्याख्यान सुन यह व्रत लिया, जो मैं पापका आचरण न करू' । सो व्रत उपमन्यु पुरोहितने सुद्धाय दिया । एक समय राजापर परशत्रुओं की धाड आई । सो राजा पर पुरोहित
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