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इक्कीसवा पर्व
२४ जैसे जीतका शब्द सुने हर्ष होय । पवनकरि हाले हैं वृक्षनिके अग्रभाग, सो मानों पर्वत बनबाहुका सन्मान ही कर है । भर भ्रमर गुंजार करें हैं सो मानों वीनका नाद ही होय है । वज्रबाहुका मन प्रसन्न भया। बज्रबाहु पहाडकी शोमा देखे है यह आम्रवृक्ष, यह कर्णिकार जातिका वृक्ष, यह रौद्र जातिका वृत, फूलनकरि मंडित यह प्रवालवृत, यह पलासका वृत अग्नि समान देदीप्यमान हैं पुष्प जाके ।
वृक्षनिकी शोभा देखते देखते राजकुमारकी दृष्टि मुनिराज पर परी । देखि कर विचारता भया । यह थंभ है अथवा पर्वतका शिखर है अथवा मुनिराज है। कायोत्सर्ग धरि खडे को मुनि तिनवजवाहुका ऐसा विचार भया । कैसे हैं मुनि ? जिनकूछ जानिकरि जिनके शरीर मृग खाज खुजावे हैं जब नृप निकट गया तब निश्चय भया जो ये महायोगीश्वर देव या अबस्थाको धरै हैं, कायोत्सर्ग ध्यान धरें स्थिररूप खडे हैं । सूर्यको किरणकरि सपरस्या है मुखकमल जिनका भर महासर्प के समान देदीप्यमान भुजा, तिनको लम्बाए ऊभे हैं। सुमेरुका तट समान सुंदर है वक्षस्थल जिनका, अर दिग्गजनिक बांधर्वके थंभ, तिन समान अचल है जंघा जिनकी, तपकार जीण शरीर हैं परन्तु कांतिकर पुष्ट दीखें हैं। नासिकाके अग्रभाग पर लगाये हैं निश्चल सौम्य नेत्र जिनने, मात्माको एकाग्र ध्यावे हैं ऐसा मुनिको देखकर राजकुमार चिंतवता भया-अहो ! धन्य है वे मुनि, महाशांतिभावके धारक जो समस्त परिग्रहको तनकर मोक्षाभिलाषी हो तप करें इनक निर्वाण निकट है। निज कल्याणविणै है बुद्धि जिनकी, परजीवनक पीडा देवतें निवृच भया है मात्मा जिनका, अर मुनिषदकी क्रेयाकरि मंडित हैं जिनके शत्रु मित्र समान अर रत्न तृण समान मान मत्सरते रहित है मन जिनका वश किये हैं पांच इंद्रिय जाने, निश्चल पर्वत समान, वीतराम भार धरै तिनक देखें जीवनिका कल्याण होइ, या मनुष्य देहका फल इन ही पाया । ये विषय कपायनिकरि न डिगाये। कैसे हैं विषय काय ? महाकर हैं अर मलिनताके कारण हैं। मैं पापी कर्मपाशकरि निरंतर वेढ्या, जैसे चंदनका वृक्ष सर्पनिकरि बेष्टित होय, तैसैं मैं पापी असावधानचित्त अचेतनसम होय रह्या हो । धिकार मोकों मैं भोगादिरूप जो महापर्यत, ताके शिखरपर निद्रा करूहूं सो नीचा परूंहूंगा । जो या निग्रंथ कैसी अवस्था धरूं तो मेरा जन्म कृतार्थ हो । ऐसा चितवन करते बज्रबाहुकी दृष्टि मुनिनाथविणे अत्यंत निश्चल भई । मानों थंभते बांधा । तप याका उदयसुंदर साला या निश्वल दृष्टि देख मुलकता संता सुहास्यके वचन कहता मयाहनिकी भोर अत्यंत निश्चल होय निरखो हो सो दिगम्बरी दीक्षा धरोगे ? तब बजवाहु गोले जो हमारा भाव था सो तुम प्रगट किया । अब तुम्हारे भावकी बात कहो । तब वह यारामी जान हास्यरूप बोला-तुम दीचा धरोगे तो मैं भी थरोंगा परंतु दीक्षात तुम अत्यंत उदास होउगे। तब बज्रबाहु बोले-यह तो अगी ही भई । यह कह करि विवाहके आभूषण उतारे भर हाथीते उतरे। तब मृगनैनी स्त्री रोवने लगी, स्थूल मोती समान अश्रुपात डारती भई तब उद. पसुंदर आंसू डारि कहता भया-रे देव ! यह हास्यमें कहा विपरीत करो हो । तब जवाहु अति.
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