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________________ २१० पच-पुराण मधुर वचनकरि ताकों शांतता उपजावते संते कहते भए -हे कल्याणरूप ! तुम समान उपकारी को है ? मैं कूपमें पड्या था सो तुम राख्या । तुम समान मेरे तीन लोकमें मित्र नाहीं। हे उदय. संदर ! जो जनम्या है सो अवश्य मरेगा श्रर मुवा है सो अवश्य जन्मेगा । ये जन्म पर मरस अरहटकी घडी समान हैं। तिनमें संसारी जीव निरंतर भ्रमें है। यह जीतव्य विजुलीके चमस्कार समान तथा जल की तरंग समान तथा दुष्ट सर्पकी जिह्वा समान चंचल है। ये जगतके जीव भव सागरमें डूब रहे हैं । ये संसारके भोग असार हैं । जलके बूंद समान यह काया है। सांझके रंग समान यह जगतका स्नेह है । अर यह यौवन फूल समान कुमलाय जाय है । यह तुम्हारा हंसना भी हम अमृत समान कल्याणरूप भया । कहा हास्यकरि जो प्रोपविक पावै तो रोगको न हरे, अवश्य हर है। तुम हमको मोक्षमार्गके उद्यमके सहायी भये तुम समान और हमारे हितू नाहीं । मैं संसारके आचारविणे आसक्त हो रहा था वीतरागभावको प्राप्त भया । अब मैं जिनदीक्षा धरहूं। तुम्हारी इच्छ होय सो करहु श्रेमा कहकरि सर्व परिवारसों दमा करत्य गुणसागर नामा मुनि, तपही है धन जिनके, तिनके निकट जाय, चरणारविंदको नमस्कार करि विनयवान होय कहता भया- हे स्वामी ! तिहारे प्रसादकरि मन मेरा पवित्र भया अब मैं संसाररूप कीचत निकस्या चाहूँ हूं। तब याके बचन सुनि गुरु आज्ञा दई-तुमको भवसागर पार करणहारी यह भगवत दीक्षा है । कैसे हैं गुरु ? सप्तम गुणस्थानत छठे गुणस्थान आए हैं। यह गुरुकी आज्ञा उरमें थारी । वख आभूषणका स्थागकरि पन्यंकासन धारि पल्लव समान अपने कर तिनकरि केशनिका लोंच करता भया या देहक विनशर जानि देहसूनेह तजि राजपुत्रीको भर राग अवस्थाको तजि मोक्षकी देनहारी जिनदीक्षा अंगीकार करता भया अर उदयसु. न्दरको आदि देय छव्वीस राजकुमार जिनदीक्षा धरते भए । कैसे हैं वे राजकुमार ? कामदेवका सा है रूप जिनका, तजे हैं राग, द्वेष, मद, मत्सर जिनने, उपजा है वैराग्यका अनुराग जिनके परम उत्साहके भरे, नग्नमुद्रा थरते भए । अर यह वृत्तांत देख वज्रबाहुकी स्त्री मनोदया पतिके अर भाई के स्नेहकारि मोहित हुती सो मोह तजि आर्यिकाके व्रत धरती भई । सर्व वख भूषण तजि एक सफेद साडी धरती भई । महा तप व्रत आदरे। यह बजबाहुकी कथा, याका दादा जो राजा विजय त ने सुनी, सभाके मध्य बैठा हुता, शोककरि पीडित होय विचारता भया मो सारिखा मूर्ख विषयका लोलुपी वृद्ध अवस्थाविणे भी भोगनिको न तजता भया । सो कुमारने कैसे तजे ? अथवा वह महाभाग जो भोगनि तृणवत् तजकर मोक्षके निमित्त शांत भाव विष तिष्ठा । मैं मंदभाग्य जराकर पीडित, इन पापी विषयनिने माहि चिरकाल ठग्या। कैसे हैं ये विषय ? देखते संदर अर फल इनके अति कडक । मेरे इंद्र नीनमणि समान श्याम के शनि का समूह हुता सो कफकी राशि समान श्वेत हो गए। ये यौवन अवस्थाविर्षे मेरे नेत्र श्यामता श्वेतता अरुणता लिए अति मनोहर हुते ते अब ठण्डे परि गए । अरा मेरा शरीर अतिदेदीप्यमान, शोभायमान, महाबलवान, स्वरूप था सो अब वृद्ध अवस्था वि वर्षाकरि हन्या जो चित्राम ता समान होय गया । धर्म अर्थ काम तरुण अवस्थावि भली भांति सधै है सो जराकरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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