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इक्कीसवां पर्व पीडित जे प्राणी तिनकर सधनां विषम हैं। विक्कार ! मो पापी दुराचारी प्रमादी का जो मैं चेतनथका चेतना दासी आदरी यह झूठा घर झूठी माया, ये झूठे बांधव झूठा परिवार तिनके स्नेहकरि भवसागरके भंवर में भ्रम्या । ऐसा कह कर सर्व परिवारसों क्षमाकराय छोटा पोता जो पुरंदर, ताहि राज्य देव अपने पुत्र सुरेन्द्रमन्यु सहित राजा विजय वृद्ध अवस्थाविषै निर्वास्वबोध स्वामी के समीप जिनदीश यादरी । कैसा है राजा पुरंदर ? उदार है मन जाका । अथानन्तर राजा पुरंदर राज्य करें है । उसके पृथ्वीमती रानी, ताके कीर्तिधर नामा पुत्र सो गुणनिका सागर पृथ्वो विख्यात, अनुक्रमकरि बहुविनयवान यौवनको प्राप्त भया । सर्व कुटुम्बको श्रानंद बढावता संता, अपनी सुंदर चेष्टाकार सबनिको प्रिय भया । तब राजा पुरंदरने अपने पुत्रको राजा कौशल की पुत्री परणाई अर याको राज्य देय राजा पुरंदर गुण ही है श्राभूषण जाके, क्षेमंकर मुनिके समीप मुनित्रत धरे, कर्म निर्जरा के कारण महातप आरम्भ्या ।
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अथानंतर राजा कीर्तिधर, कुल क्रमसे चला आया जो राज्य उसे पाय, जीते हैं सब शत्रु जिसने, देवनि समान उत्तम भोग भोगवता रमता भया । एक दिवस राजा कीर्तिधर प्रजाका बंधू, जे प्रजा के बाधक शत्रु तिनको भयंकर, सिंहासन विराजे हुते, जैस इंद्र विराजे तैसे । सो सूर्यग्रहण देखि चित्तमें चितवते भए - देखो ! यह सूर्य ज्योतिका मण्डल, राहुके विमानके योगकरि श्याम होय गया । सो यह सूर्य प्रतापका स्वामी, अंधकार को मेंट प्रकाश करे है । अर जाके प्रतापकरि चंद्रमाका विम्ब कांतिरहित भार्से है । र कमलनिके वनको प्रफुल्लित करें है । सो राहुके विमानकर मंदकांति भास है। उदय होता ही सूर्य ज्योतिरूपरहित होय गया। तातें संसारकी दशा अनित्य है, ये जगत के जीव विषयाभिलाषी, रंक समान मोहपाशर्तें बंधे अवश्य काल के मुख में परेंगे । ऐमा विचारकर यह महाभाग्य संसारकी अवस्थाकों क्षणभंगुर जान, मंत्री पुरोहित सामंत निसू कहता मया समृद्रपर्यंत पृथ्वीका राज्य तुम भली भांति रक्षा करियो । मैं मुनिके बत रू' हूँ, तब सब ही विनती करते भए हे प्रभो ! तुम विना पृथ्वी हमतें दबे नाहीं, तुम शत्रुनिके जीतनहारे हो । लोकनिके रक्षक हो । तुम्हारी वय भी नवयौवन है । तात इन्द्र तुल्य राज्य कैयक दिन करहु । या राज्य के अद्वितीय पति तुम ही हो । यह पृथ्वी तुम ही शोभायमान है । तब राजा बोले- यह संसार अटवी यति दीर्घ है, याहि देखि मोहि श्रति भय उपजा है। कैसी है यह भवरूप अटवी ? अनेक दुख तेई हैं फल जिनके ऐसे कर्मरूप वृक्ष, तिन करि भरी है । घर जन्म जरा मरण रोग शोक रति अर इष्टवियोग अनिष्ट संयोगरूप अग्निकर प्रज्वलित है । तब मंत्रीनि ने राजाके परिणाम विरक्त जान बुझे अंगारनिके समूह लाय धरे । श्रर तिनके मध्य एक वैडूर्य मणि ज्योतिका पुंज अति अमोलक ल्याय धरा सो मणि के प्रतापसे कोयला प्रकाशरूप होय गये । फिर वह मणि उठाय लई तत्र वे ही कोयला नीके न लागे तब मंत्रीनिने राजासों विनती करी— हे देव ! जैसे ये क ठके कोयला रत्ननि बिना न शोभैं तैसे तुमविना सब ही न शोलेँ । हे नाथ ! तुम बिना ये प्रजाके लोक, अनाथ मारे जायेंगे । भर लूटे जांडगे अर प्रजाके नष्ट होते धर्मका अभाव होगा । वातैं जैसे तिहारा पिता तुमको राज्य देय
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