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पद्म-पुराण
मुनि भया तैसे तुमहू अपने पुत्रको राज्य देय जिनदीचा थरहु । या भांति प्रधान पुरुषनिने विनती करी | तब राजा यह नियम किया जो मैं पुत्रका जन्म सुनू ताही दिन मुनिम्रत वरू । यह प्रतिझाकर इंद्र समान भोग भोगता प्रजाको साता उपजावता राज्य किया । जाके राज्यमें काहू मोति
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प्रजाको मन उपजा । कैसा है राजा ? समाधानरूप है चित्त जाका । एक समय राणी रुहदेवी राजा सहित शयन करती हुती, सो ताको गभ रह्या । कैसा है पुत्र जो गर्भमें वाया १ संपूर्ण गुणनिको पात्र अर पृथ्वीके प्रतिपालनेकू समर्थ सो पुत्रका जन्म मया । तत्र राणी पतिके वैराग्य होने के भवत पुत्रका जन्म प्रगट न किया । कैयक दिवस वार्ता गोप्य राखी । जैसे सूर्यके उदयकों कोऊ विपाय न सके तैसे राजाके पुत्रका जन्म कैसे छिपै । कोऊ मनुष्य दरिद्र ताने द्रव्यके लोभके अर्थ राजास प्रगट किया। तब राजाने ताको मुकुट आदि सर्व आभूषण अंग उतार दिए । अर घोषशाखा नाम नगर महारमणीक यति धनकी उत्पत्तिका स्थान सो सौगांवनिसहित दिया। और पुत्र पन्द्रह दिनका माताकी गोद में तिष्ठे था सो राजतिलककरि ताको राज पद दिया । जातें नगरी अयोध्या अति रमणीक होती भई । घर अयोध्याका नाम कोशला भी है तारों चाका सुकोशल नाम प्रसिद्ध भया । कैसा है सुकोशल १ सुंदर हैं चेष्टा जाकी । सुकोशलको राज्य देय राजा कीर्तिधर घररूप बंदीगृह निकसिकरि तपोवनको गए । मुनिवत आदरे । तपरि उपजा जो तेज ताकरि राजा कैसे शोभित भए, जैसे मेवमण्डलते रहित सूर्य शोभै ।
इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै राजा कीर्तिधरका दीक्षाग्रहण अर सुकोशल पुत्रको राज्याभिषेक वर्णन करनेवाला इक्कीसवां पर्व पूर्ण भया ॥ २१ ॥
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अधानंतर दूर भषा है मान मत्सर जिनका घर उदार है चिच जिनका, तपकरि सोप्या है सर्वर लोच ही है सर्व आभूषण जिनका प्रालंबित हैं महाबाहू जिनके अर जूडे प्रमाण धरती देख अथोदृष्टि गमन करें हैं, जैसे मत्त गजेंद्र मंद मंद चलें तैसे जीवदया के अर्थि धीरा धीरा गमन करें हैं सर्व विकाररहित, महासावधानी ज्ञानी महाविनयवान लोभरहित पंचाचार वाचनहारे जीवदयाकरि विमल हैं चिच जिनका, सनेहरूप कर्दमतें रहित, स्नानादि शरीर संस्कार रहित मुनिपद की शोभाकरि मंडित सो आहारके निमित्त बहुत दिननिके उपवासे, नगर में प्रवेश करते भये । तिनको देखकर पापिनो सहदेवी मनमें विचारती भई - मानो इनको देख मेरा पुत्र बैराम्य प्राप्त हो । तत्र महाक्रोधकरि लाल होय गया है सुख जाका, दुष्ट चित्त द्वारपालसों कहती मई - यह जन नगन महामलिन वरका खोऊ है । याहि नगर निकास देहु । बहुरि नगर में न श्रावने पावै । मेरा पुत्र सुकुमार है, भोरा हैं, कोमलचित है। सो याहि देखवे न पावै । या सिवा और हू यति हमारे द्वार आपने न पात्रें ! रे द्वारपाल ! या वातमें चुप करी तो मैं विहारा निग्रह करूगी यह दयारहित बालक पुत्रकू तजकरि गया । तब या भेषका मेरे आदर नाहीं । यह राज्यलचमी निंर्दे है। अर लोगनिको वैराग्य प्राप्त करें है । भोग छोडाय जोग सिखाने है । जैसे वचन कड़े तब क्रूर द्वारपाल, वेंतकी छड़ी है जिसके हाथमें, मुनिको मुख दुर्वचन कहि
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