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बाईस पर्व नगर निकासि दिये । अर आहारकू और इ साधु नगर में आये हुते तेहू निकासि दिये । मति कदाचित् मेरा पुत्र धर्म श्रवण करै । या भांति अविनय देखि राजा सुकोशलकी धाय महाशोककरि रुदन करती मई । तत्र राजा सुकोशल थायको रोत्रती देख कहते भए - 'हे मात ! तेरा अपमान करें ऐसा कौन ? माता तो मेरे गर्भवारणमात्र है । अर तरे दुग्धकरि मेरा शरीर वृद्धिको प्राप्त भया । मेरे तो माता हूतें अधिक है। मृत्युके मुखमें प्रवेश कीया चाहे सो सोहि दुःख देवे है । जो मेरी माताहूने तेरा अनादर कीया होय तो मैं वाहूका विनय करू, औरनिकी कहा वात १ तव वसंतमाला घाय कहती मई- हे राजन् ! तेरा पिता तोहि बाल्य अवस्था में राज्य देय संसाररूप कष्ट के पींजरे भयभीत होइ तपोवनकू' गये । आज या नगरमें आहारको श्राव हुते सो तिहारी माताने द्वारपालनिसों श्राज्ञा करि नगरौँ काढे । हे पुत्र ! वे हमारे सबनिके स्वामी उनका अविनय न देख सकी । तातैं मैं रुदन करू हूं। पर विहारी कृपतें मेरा अपमान कौन करें । अर साधुनिकों देख मति मेरा पुत्र ज्ञानकों प्राप्त दोष ऐसा जानि मुनिनिका प्रवेश नगर वैं निवारचा सो विहारे गोत्रविषे यह धर्म परंपरायसे चला आया है— जो पुत्रको राज्य देग पिता वैराग्य होय । श्रर तिहारे घर से आहार विना कभी भी साधु पाछे न गए। यह वृतांत सुन राजा सुकौशल मुनि दर्शनको महलमे उतरि नमर छत्र वाहन इत्यादि राजचिन्ह तज कर कमलहू यति कोमल जो चरण सो उत्राणे ही मुनिके दर्शनको दौडे पर लोकों को पूछते जावें तुमने मुनि देखे तुमने मुनि देखे या भांति परम अभिलाषासंयुक्त अपने पिता जो कीर्तिधर मुनि तिनके समीप गये जर इनके पीछे छत्र चमर वारे सत्र दौडे ही गए, महामुनि उद्यानविषै शिला पर विराजे हुवे सो राजा सुकौशल अश्रुपात कर पूर्ण हैं नेत्र जाके, शुभ हैं भावना जाकी, हाथ जोड नमस्कार कर बहुत विनयसे मुनिके आगे खडे द्वारपालनिने द्वारसे निकासे थे सो ताकर अतिलज्जावंत होय महामुनिसों विनती करते भए -
हे नाथ ! जैसे कोई पुरुष अग्नि प्रज्वलित वरमें सूता होवै ताहि कोऊ मेघ के नाद समान ऊंचा शब्द कर जगावे तैसे संसाररूप गृह जन्म मृत्युरूप अग्निसे प्रज्वलित, ता बिषै मैं मोहनिद्राकरि युक्त शयन करू' था सो मोहि आपने जगाया । अत्र कृपा कर यह तिहारी दिगंबरी दीक्षा मोहि देहु यह कष्टका सागर संसार तासे मोहि उपारहु । जब ऐन वचन मुनिसे राजा सुकौशल ने कहे तब ही समस्त सामन्त लोक आए और राणी विचित्रमाला गर्भवती हुती सोहू अति कष्ट विषादसहित समस्त राजलोकसहित आई। इनको दीक्षा के लिए उद्यमी सुन सब ही अन्तःपुरके अर प्रजाके शोक उपजा तब राजा सुकौशल कहते भये-या राणी विचित्रमाला के गर्मविषे पुत्र: है ताहि मैं राज्य दिया ऐसा कहकर निस्पृह भये, आशारूप फांसीको छेद स्नेहरूप जो पींजरा ताहि तोड स्त्रीरूप बंधनसे छूट जीर्ण तृणवत् राज्यको जान तजा और वस्त्राभूषण सब ही तज बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग करके केशनिका लोंच किया पद्मासन धरि तिष्ठे । कीर्तिवर मुनीन्द्र इनके पिता तिनके निकट जिनदीक्षा घरी पंचमहाव्रत पांच समिति तीन गुप्ति अंगीकार कर सुकौशल मुनिने गुरुके संग विहार किया । कमल समान
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