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पा-पुराण अारक्त जो चरण तिनकरि पृथ्वीको शोभायमान करते संते विहार करते भये पर इनकी माता सहदेवी आर्तध्यान कर मरके तियन योनिमें न हो भई अर ए पिता पुत्र दोनों सुनि महाविरक्त जिनको एक स्थानक रहना शिवले पहर दिन निर्जन प्रासुक स्थान देख बैठे रहें और चतुर्मासिकमें साधुवोंको विहार न करना सो चतुर्मासिक जान एक स्थान बैठ रहे । दशों दिशाको श्याम करता संता चातुरमासिक पृथिवीविष प्रवर्ता, आकाश मेघमालाके समूहकरि ऐसा शोमै मानो काजलसे लिपा है अर कहूं एक वगुलावोंकी पंक्ति उडतीं ऐसी सोहै मानो कुमुद फूल रहे हैं पर ठौर ठौर कमल फूल रहे हैं जिन पर भ्रमर गुंजार कर हैं सो मानो वर्षा कालरूप राजाके यश ही गावे हैं, अंजनिगिरि समान महानील जो अंधकार ताकरि जगत् व्याप्त हो गया, मेधके पाजनेसे मानो चांद सूर्य डर कर छिप गये, अखण्ड जलकी धारासे पृथ्वी सजल हो गई और तृण ऊग उठे सो मानो पृथ्वी हर्षके अंकूर थरै है अर जलके प्रवाहकरि पृथ्वीमें नीचा ऊंचा स्थल नजर न आवै अर पृथ्वीविष जल के समूह गाजै हैं भर भाकाशविष मेष गाजै हैं सो मानो ज्येष्ठका समय जो वैरी ताहि जीतकर गाज रहे हैं अर वरती नीरभरनोंसे शोभित भई । भांति २ की वनस्पति पृथ्वीविष उगी सो ताकरि पृथ्वी ऐसी शोभ है मानो हरित मखिक विलोना कर राखे हैं, पृथीविर्षे सर्वत्र जल ही जल हो रहा है मानो मेष ही जलके भारसे टूट पडे है भर ठोर २ इन्द्रगोप अर्थात् वीरबहूटी दीखे हैं सो मानो बैराग्यरूप बज्रसे चूर्ण भए रागके सएड ही पृथ्वीविष फेल रहे हैं और बिजलीका तेज सर्व दिशावि विचर है सो मानो मेष नत्र कर जल पूरित तथा अपूरित स्थान को देख है और नानाप्रकारके रंगको परे जो इन्द्रधनुष ताकरि मंडित आकाश ऐसा शोमता भया मानो अति ऊंचे तोरणों कर युक्त है और दोनों पालि ढाहती महा भयानक भंवरको धरै अति वेग कर युक्त कलुषतासंयुक्त नदी बहै है सो मानो मर्यादारहित स्वच्छन्द स्त्रीके स्वरूपको आचरै हैं पर मेवके शब्द कर त्रासको प्राप्त भई जे मृगनयनी विरहिणी ते स्तम्भनर स्पर्श करे हैं अर महाविह्वल हैं पति के प्रावने की आशाविष लगाए हैं नेत्र जिनने । ऐसे वर्षाकालांवरे जीव दयाके पालन हारे महाशांत अनेक निग्रंथ मुनि प्रांसुक स्थानक विष चौमासा लेप तिष्ठे पा जे गृहस्थो श्रावक साधु सेवाविषै तत्पर ते भी चार महीना गमनका त्याग कर नानाप्रकारके नियम पर रिष्ठे । ऐसे मेष कर व्याप्त वर्षाकालनि वे पिता पुत्र यथार्थ
आचारके आचरनहारे प्रतवन कहिए श्मशान ताविणे चार महीना उपवास धर वृक्ष वले विराजे । कभी पद्मासन कभी कायोत्सगं कभी बीरासन आदि अनेक आसन घर चातुर्मास पूर्ण किया। कैसा है वह प्रतवन ? वृदोंके अन्धकार कर महागहन है. पर सिंह व्याघ्र रोख स्याल सर्प इत्यादि अनेक दुष्ट जीवनिसे भरा है, भयंकर जीवोंको भी भयकारी महा विषम है गीध सियाल चील इत्यादि जीवों कर पूर्ण हो रहा है अर्धदग्ध मृतकोंका स्थानक महा भयानक विषम भूमि, मनुष्योंके सिरके कपालके समूह कर जहां पृथ्वी श्वेत. हो रही है और दुष्ट शब्द करते पिशाचोंके समूह विचरै हैं पर जहां तृणजाल कंटक बहुत हैं सो ये पिता पुत्र दोनों धीरवीर पवित्र मन चार महीना वहां पूर्ण करते भए ।
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