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________________ - पभ-पुराण अर काय क्लेश कहिये ग्रीष्ममें गिरि शिखर, शीतविष नदीके तीर, वर्षा में वृक्षके तले तीनों कालके तप करने तथा विपमभूमिविष रहना, मासोपवासादि अनेक तप करना ये षट् वाह्य तप कहे अर प्राभ्यन्तर एट तप सुनो-प्रायश्चित्त कहिए जो कोई मनसे तथा वचनसे तथा कायसे दोष लगा सो सरल परिणामकर श्रीगुरुये प्रकाशकर तपका दंड लेना बहुरि विनय कहिये देव गुरु शास्त्र साधर्मियोंको विनय करना तथा दर्शन ज्ञान चारित्रका आचरण सो ही इनका विनय अर इनके जे धारक तिनका आदर करना आपसे जो गुणाधिक होइ ताहि देखकर उठ खड़ा होना सम्मुख जाना आप नीचे बैठना उनको ऊंचे विठाना मिष्ट वचन बोलने दुख पीड़ा मेटनी अर वैयाव्रत काहिए जे तपसे तमायम न है रोमकरि युक्त हैं गात्र जिनका वृद्ध है अथवा नव वयके जे बालक हैं तिनका नाना प्रकार यन्न करना औषध पथ्य देना उपसर्ग मेटना अर स्वाध्याय कहिए जिनशासनका वाचना पूछना, अाम्नाय कहिये परिपाटी, अनुप्रेक्षा कहिये बारम्बार चितारना, धर्मोपदेश कहिये धर्मका उपदेश देना पर व्युस्सर्ग कहिए शरीरका ममत्व तजना तथा एक दिवस आदि वर्ष पर्यत कायोत्सर्ग धरना पर ध्यान कहिए आर्त रौद्र ध्यानका त्यागकर धर्म ध्यान शुक्लध्यान ध्याना ये छह प्रकारके अभ्यन्तर तप कहे । ये वाह्याभ्यन्तर द्वादश तप सब ही धर्म हैं। ___ इस धर्मके प्राबसे भाव वर्मका नाश करै हैं पर तपके प्रभावये अद्भुत शक्ति होय है सर्व मनु य अर देवों को जीतनकू समर्थ होय है। विक्रया शक्तिकर जो चाहै सो करै। पिक्रियाके अष्ट भेद हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्रालि, प्राकाम्य, ईशन, वशिन्व । सो महामुनि तपोनिधि परम शांत हैं सकल इच्छ त रहिा हैं और ऐसी पार्थ है चाहें तो सूर्यका अाताप निवार, चन्द्रमाकी शीतलता निवारें, चाहें तो जलवृष्टि कर चणमात्रविष जगत को पूर्ण करें, चाहे तो भस्म करें, क्रूर दृष्टि कर देसै तो प्राण , कृपादृष्टि कर देखें तो रंकसे राजा करें, चा हैं तो रत्न स्वर्णकी वर्षा करें, चाहें तो प.प.णकी वर्षा करें इत्यादि सार्थ्य है परन्तु बारें नाहीं । करें तो चारित्रका नाश होय । तिन मुनिक चरणरजकर सर्व संग जाय, मनुष्योंको अद्भुत विभनके कारण निके चरण मल हैं । जीव धर्म कर अनन्त शक्ति को प्राप्त होय हैं धर्म कर कर्मनको हरै हैं अर कदाचित् को जन्म लय तो सौधर्म सर्ग अदि सवार्थ सिद्धि पर्वत जाय स्वर्गविष इन्द्रपद पावै तथा इन्द्र समान रिभूतिके धारक देव होंय जिनके अोक खण के मन्दिर, स्वर्णके, स्फटिक मणिके, वैये मणिक थंभ अर रत्नमई भीति देदीप्यम न अर सदर झरोखोंसे साभायनान पमरागाण आदि नाना प्रकारकी मणिक शिखर हैं जिनके पर मोतियोंकी झालरोंस शोभित अर जिनमहलोंमें अनेक चित्राम ति के गजोंक हंसाक स्थानोंके मयूर कोकिलादिकोंक दोनों भीतविषे रत्ननई चित्रामाभायमान है। चन्द्रशालादिकर युक्त, ६.जावोंकी पंक्तिकर शोभित, अत्यन्त मनके हर पहारे, मन्दिर म हैं। बापनादिन संयुक जहां नाना प्रक र वात्रि बाजे हैं, माज्ञाकारी सेवक देव अर महामनोहर देशांगना, अद्नत र लोकं सुख नहा मुं.र परावर कमलादेिकर संयुक्त कल्पवृक्षांक वन विमान आदि विभाग यह सनी जांच ध माका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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