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चौदहवां पर्व की भक्तिविष तत्पर हैं अर व्रत क्रियामें प्रतीण हैं अपन: विभूति प्रमाण जिनमंदिकर जल चंदन धूप दीपादिकर पूजा करनी । जे जिनमदिरादिमें धन खरचं ते स्वर्गलोकमें तथा मनुप्य लोकविणे अत्यन्त ऊंचे भोग भोगि परम पद पाये हैं अर जे रविध संघको भक्तिपूर्वक दान करें हैं ते गुणानिके भाजन हैं, इन्द्रादि पदके भोगों को पाव है तात जे पी शक्तिप्रमाण सम्यग्दृष्टि पात्रोंको भक्तिसे दान करे हैं तथा दुखियोंको दयाभाव कर दान करें हैं सो धन सफल है अर कुमारगमें लगा जो धन सो चोरांस लूटा जानो अर आत्मध्यानके योगसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होय है जिनको केवलज्ञान उपजा तिनको निर्वाण पद है। सिद्ध सर्व लोकके शिखर तिष्ठ हैं सर्व बाधारहित अष्टकमसे रहित अनंतशान अनंतदर्शन अनंसुख अनंतवीर्य से संयुक्त शरीरसे रहित वामूर्तिक पुरुषाकार जन्म मरणसे रहित अविचल विराजै हैं, जिनका संसार विर्य आगमन नाही. मन इन्द्रीसे गंच है यह सिद्धपद धर्मात्मा जीव पाये अर पापी जीव लोभरूप पक्न से वृद्धिको प्राप्त भई जो दुखरूप अग्नि उसमें बलते तुक्रतरूप जल बिनः सदा क्लेशको पावै हैं, पारूप अन्धकारके मध्य मिष्ठे मिथ्यादर्शनके वशीभूत हैं। कोई एक भव्यजीव धर्मरूप सूर्यकी किरणोंसे पाप ति रको हर केवलज्ञान को पावै है अर ये जीव अशु रूप लोहेके पिंजरेमें पड़े आशारूप पाशकर बेढ़े धर्मरूप वाधव कर छूट हैं, व्याकरणहूं धर्म शब्दका यही अर्थ हुआ है जो धर्म आचरता हुया दुर्गतिविणे पड़ते प्राणियोंको थांभ सो धर्म कहिए,ना धर्मका जो लाभ सो लाभ कहिये, जिनशासनविषै जो धर्मका स्वरूप कहा है सो संक्षेपसे तुमको क है हैं, धर्मके भेद पर धर्मके. फलके भेद एकाग्रमन कर मुनो, हिंसासे असत्यसे चोरीसे कुशीलसे धन पारिग्रहके संग्रहसे विरक्त होना इन पापोंका त्याग करन सो महाव्रत कहिये । विवेकियोंको उसका धारण करना श्रर भूमि निरखकर चलना हित मिन संदेहरहित बोलना निर्दोष आहार लेना यत्नसे पुस्तकादिक उठावना मेलना निजाभूमिविणे शरीरका मल डारना ये पांच समिति कहिये तिनका पालना यत्नकर र मन वचन कायकी जो वृत्ति ताका अभाव ताका नाम तीन गुप्ति कहिये सो परम आदरतें साधुओंको अंगीकार करनी। क्रोध मान माया लोभ ये कषाय जीक्के महाशत्रु हैं सो क्षमासे क्रोधको जीतना अर मार्दव कहिये निगर्व परिणाम निहार मनको जीतना अर आर्जव कहिये सरल परिणाम निष्ट पट भाव ताकरि मागाचारको जीतना अर संतोषसे लोभको जीतना, शास्त्रोक्त थर्मके करनहारे जे मुनि तिनको कपाशेंका निग्रह करना योग्य है। ये पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्ति कषयनिग्रह मुनिराजका धर्म है अर मुनिका मुख्य धर्म त्याग है। जो सर्व त्यागी होय सो ही मुनि है अर रसना स्पर्शन घाण चक्षुः श्रोत्र ये प्रसिद्ध पांच इन्द्री तिनका वश करना सो धर्म है अर अनशन कहिये उपवास, अवमोदर्य कहिए अल्प आहार, व्रतपरिसंख्या कहिए विषम प्रतिज्ञाका धारणा अटपटी बात विचारनी इस विधि श्राहार मिलेगा तो लवेंगे, नातर नहीं अर रसपरित्याग कहिए रसोंका त्याग, विविक्त शय्यासन कहिये एकान्त वनविष रहना, स्त्री तथा बालक तथा नपुंसक तथा ग्राम्यपशु इनकी संगति साधुवों को न करनी तथा और भी संसारी जीवोंकी संगति न करनी, मुनिको मुनिहीकी सङ्गति करनी
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