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पल-पुराण वेदनायुक्त जो नरक ताविषे पड़े हैं और जे हिंयाके उपकरण शस्त्रादिक तथा जे बन्धनके उपाय पांसी इत्यादि तिनका दान करै हैं तथा पंचेंद्रिय पशु प्रों का दान करे हैं और जे इन दानों को निरूपण करे हैं ते सर्वथा निंद्य हैं । जो कोई पशुका दान करै और वह पशु बांधने कर मारने कर ताडनेकर दुःखी होय तो देनहारेको दोष लागे और भूमिदान भी हिंसाका कारण है जहां हिंसा वहां धर्म नहीं। श्रीचैत्यालयके निमित्त भूमिका देना युक्त हैं और प्रकार नहीं। जो जीव. घातकर पुण्य चाहै हैं सो पाषाण से दुग्ध चाहै हैं तात एकेंद्रो आदि पन्द्री पर्यंत सर्व जीवोंको अभय दान देना, विवेकियों को ज्ञान दान ना पुस्तकादिक देना र अंषध अन्न जल वस्त्रादि सबको देना पशुओंको सूखे तृण देना और जैसे समुद्र वषै सीप मेषका जल पिया सो मोती होय परणवै है तैसे संसारबिपै द्रव्यके योगसे सुपात्रों को यव आदि अन्न में दिये महा फल को फलें हैं और जो धनवान होय सुपात्रोंको श्रेष्ठ वस्तुका दान नहीं करै हैं सो निंद्य हैं । दान बड़ा धर्म है सो विधिपूर्वक करना । पुण्य पापविणै भाव ही प्रधान है जो विना भाव दान करै हैं सो गिारेक सिरपर बरसे जल समान हैं सो कार्यकारी नहीं, क्षेत्रविणे बरसे है सो कार्यकारी है। जो कोई मर्वज्ञ वीतरागको ध्यावे है और सदा विधिपूर्वाक दान कर है उसके फनको कौन कह सके, तातें भगवान शिवम्ब तथा जनन्दिर जि । म जिन पीडा सिद्ध की मात्रा चतुरविव संघकी भक्ति शास्त्र सर्व देशविपै चार करना यह धन खन : सप्त महा क्षेत्र हैं। तिनविणे जो धन लगावै सोफन है । तथा करुगादान परोपकारी जनै सो सफल है।
जे आयुधका ग्रहण करै हैं ने द्वषसंयुक्त जानने । जिनके रग द्वेष है तिनके मोह भी है अर जे कामिनीके संगसे श्राभूषणों को धारण कर हैं ते रागी जानने अर मोह बिना राग द्वेष होय नहीं, सकल दोषोंका मह कारण है, जिनके रागादि कलंक है, ते संसारो जीव हैं जिनके ये नहीं वे भगनान हैं। जे दश काल कामादिक सेवनहारे हैं, ते मनुष्य तुल्य है तिनमें देवत्व नहीं तिनकी सेवा शिवपुरका कारण नहीं अर काहूके पूर्व पुण्यके उदयसे शुभ मनोहर फल होय है सो कुदेव सेवाका फल नहीं. कुदेव की सेना सांसारिक सुख भी न ओयो शिवमुख कहांसे होय याने कुदेवोंको सेवनः बलू को पेल तेलका काढना है अर परिनके सेवन तृपाका बुझावना है जैसे कोई पंगुको पगु देशांतर न ले जाय सकै तैम कुदेशोंक आराधना से परम पदकी प्राप्ति कदाचित् न होय । भगवान विना और देवोंके सेवनका क्लेश करै सो वृथा है, कुदेवनमें देवत्व नाही अर जे कुदेवोंके भक्त हैं ते पात्र नहीं, लोभकर प्रेरे प्राली हिंसाहर्म वषै प्रवरते हैं हिंसाका मय नहीं, अनेक उपायकर लोकोंसे धन लय हैं संसारी लोक भी लोमा सो लोभि ठगावें है तातै सर्व दोषरहित जिन आज्ञा प्रभागा जो महा दान करै सो माफल पावै, वाणिज्य समान धर्म है, कभी किसी वाणिज्यविष अधिक नफा होय, कभी अल्प होय, कदापि टोटा होय, कभी मूल ही जाता रह, अल्पसे बहुत फल हो जाय, बहुतसे अल्प हो जाय अर जैसे विषका कम सरोवरीमें प्राप्त भया सरोवरोको विषरूप न करे तैसे चैत्यालयादिके निमित्त अन्य हिंता सो धर्मका विघ्न न करे तातै गृहस्थी भगवानके मंदिर करावें । कैसे हैं गृहस्थी ? जिनेन्द्र
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