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पद्मपुराण चैत्यालयोंका दर्शनकर अपने मन्दिर आये । कैसा है मन्दिर ? महा मंगलकर पूर्ण है ऐसे अपने प्यारे जनोंके आगमका उत्साह सुखरूप ताका वर्णन कहाँ लग करिये । पुण्यरूपी सूर्यके प्रकाशकर फूला है मन कमल जिनका ऐसे मनुष्य वेई अद्भुत सुखकूपावे हैं ।
इति श्रीरविषेणा वार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविौं राम लक्ष्मणसू लवणांकुशका मिलाप वर्णन करनेवाला एकसौ तीनवां पर्ण पूर्ण भय। ॥ १८३ ।।
अथानन्तर विभीषण सुग्रीव हनूमान मिलकर रामसे विनती करते भये- हे नाथ हमपर कृपा करो हमारी विनती मानों जानकी दुखसे तिष्ठे हैं इसलिये यहां लायवेकी आज्ञा करो, तब राम दीर्घ उष्ण निश्वास नाख क्षण एक विचारकर बोले, मैं सीताको शीलवती दोषरहित जानू हूं वह उत्तम चित्त है परन्तु लोकापवादकर घरसे काढा है अब कैसे बुलाऊं इसलिये लोकनिको प्रतीति उपजायकर जानकी आवै तब हमारा उनका सहवास होय, अन्यथा कैसे होय इसलिये सब देशनिके राजानिको बुलावो समस्त विद्याधर अर भूमिगोचरी आवे सब निके देखते सीता दिव्य लेकर शुद्ध होय मेरे घरमें प्रवेश करे जैसे शची इन्द्र के घरमें प्रवेश करे तब सबने कही जो
आप आज्ञा करोगे सोही होयगा तब सब देशनिके राजा बुलाये सो बाल वृद्ध स्त्री परिवार सहित अयोध्या नगरी आये जे सूर्यको भी न देखें घरहीमें रहैं वे नारी भी आई और लोकनिकी कहा बात ? जे वृद्ध बहुत वृत्तान्तके जानने हारे देशमें मुखिया सब दिशानिसे आए कैयक तुरंग पर चढे कैयक रथनिपर चढे तथा पालकी हाथी अर अनेक प्रकार असवारिनिपर चढे बड़ी विभूतिसे आये विद्याधर आकाशके मार्ग होय विमान बैठे आए अर भूमिगोचरी भूमिके मार्ग आये मानों जगत जंगम गया, एपकी आज्ञासे जे अधिकारी हुते तिन्होने नगर के बाहिर लोकनके रहनेके लिये डेरे सर महा विस्तीर्ण अनेक महिल बनाये तिनके दृढस्तंभके ऊंचे मंडप उदार झरोखे सुन्दर जाली तिनमें स्त्रिय भेली अर पुरुष भेले भये, यथायोग्य बैठे दिव्यको देखवेकी है अभिलाषा जिनके जेते मनुष्य आए तिनकी सर्वभांति पाहुनगति राजद्वा. रके अधिकारियोंने करी, सवनिको शय्या आसन भोजन तांबूल वस्त्र सुगन्ध मालादिक समस्त सामग्री राजद्वारसे पहुंची सवनिकी स्थिरता करी अर रामक आज्ञासे भामण्डल विभीषण हनूमान सुग्रीव विराधित रत्नजटी यह बडे २ राजा आकाशके मार्ग क्षणमात्रमें पुण्डरीकपुर गए सो सव सेना नगरके वाहिर राख अपने समीप लोकनि सहित जहां जानकी थी वहां पाए जय जय शब्दकर पुष्पांजनि चढाय पांयनको प्रणामकर अति विनयसंयुक्त प्रांगण में बैठे, तब सीता आसू डारती अपनी निंदा करती भई-दुर्जनोंके वचनरूप दावानल फरि दग्ध भये हैं अंग मेरे सो क्षीरसागरके जलकर भी सींचे शीतल न होंय । तब वे कहते भये-हे देवि भगवती सौम्य उत्तमे अब शोक जो पर अपना मन समाधानमें लावो या पृथिवी में ऐसा कौन प्राणी है जो तुम्हारा अपवाद करै ऐसा कौन जो पृथिवीको चलायमान करै अर अग्निकी शिखाको पीवै अर सुमेरुके उठायवेका उद्यम करै अर जीभकर चांद सूर्यको चाटै ऐसा कोई नाहीं। तुम्हारा गुणरूप रत्ननिका पर्वत कोई चलाय न सके, अर जो तुम सारिखी महा सतीयोंका अपवाद करै तिनकी
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