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एकमोचार ५। पर्व जीके हजर टूक क्यों न होवें। हम सेवकों के समूह को भेजकर जो कोई भरत क्षेत्र में अपवाद करेंगे उन दुष्टों का निपात करेंगे अर जो विनयान तुम्हाग गुणगायबेमें अनुरागी हैं उनके गृहमें रत्नवृष्टि करेंगे यह पुष्पक विमान श्रीरामचन्द्रने भेजा है उसमें अानंदरूप होय अयोध्याकी तरफ गमन करो सब देश अर नगर अर श्रीरामका घर तुम विना न सोहै जैसे चन्द्रकला विना आकाश न मोहे पर दीपक मिना मन्दिर न सोहे अर शाखा विना वृक्ष न सोहे, हे राजा जनककी पुत्री आज रामा मुखचन्द देखो, हे पंडित पतिव्रते तुमको अवश्य पनिका वचन मानना । जब ऐसा कहा तब सीता मुख्य महलियों को लेकर पुष्पक विमानमें गारूह होय शीघ्र ही संपाके ममय अयोध्या
आई सूर्य असा हो गया सो महेंद्रादय नामा उद्यान में रात्री पूर्ण करी अागे रामसहित यहां श्रावती हुती सो वन अति भन्नाहर देखती हुनी सो अब सम विना रमणीक न भासा ।।
अथानन्तर सूर्य उदय भया क.मल प्रफुल्लित भये जैसे राजाके किर पृथिवी में विचरे तैसे सूर्य की किरण पृथिवीमें विस्तरी जैसे दिव्यकर अपवाद नस जाय तैसें मूक प्रताय कर अंधकार दूर भया तब सीता उत्तम नारियों कर युक्त रामके समीप चली हथिनी पर चढी मनकी उदासीनता कर हतीगई है प्रभा जिसकी तौभी भद्र परिणामकी धारण हारी अत्यन्त सोहती भई जैसे चन्द्रमाकी कला ताराओं कर मंडित साहे तैसे सीता सखियोंकर मंडित सोहे सब सभाके लोक विनयसंयुक्त गीताको देख बंदना करते भये यह पापरहित धीरताकी धारणहारी रामकी रमा सभामें आई, राम समुद्र समान तोमको प्राप्त भये । लोक सीताके जायबेकर विवाद के भरे थे अर कुमारोंका प्रताप देख आश्चर्यके भरे भये अब सीताके प्रायवे कर हर्षके भरे ऐसे शब्द करते भए-हे माता सदा जयवंत होवो नदो वरधो फूलो फलो धन्य यह रूप धन्य यह धीर्य धन्य यह सत्य धन्य यह ज्योति धन्य यह महानुभावता धन्य यह गंभीरता धन्य निर्मलता ऐसे वचन समस्तही नर नारीनिके मुख से निक से अाकाशमें विद्याधर भूमिगांचरी महा कौतुक भरे पलक रहित सीताके दर्शन करते भए । अर परस्सर कहते भए पथिवीके पुण्यके उदयसे जनकसुता पीछे आई, कैएक तो वहां श्रीरामकी ओर निरखे हैं जैसे इन्द्रकी ओर देव निरखें कैएक रामके समीप बैठे लवण पर अंकुश तिनको देख परस्पर कहे हैं -ये कुमार रामके सदृश ही हैं और केईए क लक्ष्मणकी ओर देखे हैं कैसे हैं लक्ष्मण शत्रुवोंके पक्षके क्षय करिवेको समर्थ अर कई शत्रुध्नकी और केईएक भामण्डलकी ओर कई एक हनूमानकी ओर कैइएक विभीपणकी ओर वाईएक विराधितकी ओर अर कईएक सुग्रीवकी ओर निरखे हैं अर कईए क पाश्चर्यको प्राप्त भए सीताकी ओर देखे हैं।
अथानन्तर जानकी जायकर रामको देख आपको वियोग सागरके अन्तको प्राप्त भई मानती भई, जब सीता सभामें आई तब लक्ष्मण प्रर्घ देय नमस्कार करता भया, अर सब राजा प्रणाम करते भए, सीता शीघ्रता कर निकट श्रावने लगी तग राघव यद्यपि क्षाभिन हैं तथापि सकोप होय मनमें विचारते भये इसे विषम वनमें मेली थो सो मेरे मनकी हरणहारी फिर आई । देखो यह महा ढीठ तजी तौभी मोसे अनुराग नहीं छांडे यह रामकी चेष्टा जान महासती उदासचित्त होय विचारती भई मेरे वियोगका अन्त नहीं आया मेरा मनरूप जहाज विरहरूप समु
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