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________________ पद्म पुराण द्रके तीर पाय फटा चाहे है । ऐसी चिंतासे व्याकुल चित्त भई पगके अंगूठेसे पृथिवी कुचरती भई बलदेवके समीप भामण्डलकी बहिन कैसी मोहे है जैसी इन्द्रके आगे सम्पदा सोहै तब राम बोले-हे सीता ! मेरे आगे कहा तिष्ठे है तू परे जा, मैं तेरेदे खवेका अनुरागी नाहीं मेरी आंख मध्याह्न के सूर्य पर आशीविष रूप तिनको देखसके परंतु तेरे तनको न देख सके है तू बहुत मास दशमुखके मन्दिरमें रही अब तोहि घरमें राखना मोहि कहा उचित ? तब जानकी बोली तुम महा निर्दई चित्त हो, तुमने महा पण्डित होयकर भी मृढ लोकनकी न्याई मेरा तिरस्कार कीया सो कहा उचित मुझ गर्भवतीको जिनदर्शनका अभिलाष उपजा हुता सो तुम कुटिलतासे यात्राका नाम लेय विषम वनमें डारी यह कहा उचित ?. मेरा कुमरण होता अर कुगति जाती यामें तुमको कहा सिद्ध होता, जो तिहारे मन में तजवेकी हुती तो अार्थिकायोंके समीप मेली होती । जे अनाथ दीन दलिद्री कुटुम्बरहित महा दुखी तिनको दुख हरिवेका उपाय जिनशासनका शरण है यासमान अर उत्कृष्ट नाहीं । हे पद्मनाभ ! तुम करवे में तो कछू कमी न करी अब प्रसन्न होवो आज्ञा करो सो करू यह कहकर दुखकी भरी रुदन करती भई । तप राम बोले- हे देवि ! मैं जानू हूं तिहारा निर्दोषशील है अर तुम निष्पाप अणुव्रतकी धारणहारी मेरी आज्ञाकारिणी हो, तिहारे भावनकी शुद्धता मैं भली भांति जानू हैं परंतु ये जगतके लोक कु टेल स्वभाव हैं । इन्होंने वृथा तिहारा अपवाद उठाया सो इनको संदेह मिटे अर इनको यथावत् प्रतीति अावै सो करहु । तब सीताने कही आप आज्ञा करो सोही प्रमाण जगतमें जेते प्रकारके दिव्य हैं सो सव करके पथिवीका संदेह हरू हे नाथ ! विषोंमें महाविष कालकूट है जिसे सूंघकर आशीविप सर्प भी भस्म होय जाय सो मैं पीऊ पर अग्निकी विषम ज्वालामें प्रवेश करू अर जो आप आज्ञा करो सो करू तब क्षण एक विचारकर राम बोले, अनि कुण्डमें प्रवेश करो। सीता .महाहर्ष की भरी कहती भई यही प्रमाग । तब नारद मनमें विचारते भए यह नो महा सती है परंतु अग्निका कहा विश्यास याने मृत्यु आदरी अर भामण्डल हनूमानादिक महाकोपसे पीडित भये अर लवण अंकुश माताका अग्निमें प्रवेश करवेका निश्चय जान अति व्याकुल भये अर सिद्धार्थ दोनो भुजा ऊंचीकर कहता भया -हे राम ! देवोसे भी सीताके शीलकी महिमा न कही जाय तो मनुष्य कहा कहें । कदाचित सुमेरु पाताल में प्रवेश करै अर समस्त समुद्र सूक जाय तो भी सीताका शीलबत चलायमान न होय, जो कदाचित् चन्द्रकिरण उष्ण होय, अर सूर्यकिरण शीतल होय तो भी सीता को दूपण न लगे । मैं विद्याके बलसे पंच सुमेरुमें तथा जे कृत्रिम अर अकृत्रिम चैत्यालय शास्वते वहां जिनबन्दना करी-हे पद्मनाभ ! सीताके व्रतकी महिमा मैं ठौर २ मुनियोंके मुखसे सुनी है तातें तुम महा विचक्षण हो महासतीको अग्नि प्रवेशकी आज्ञा न करो अर आकाशमें विद्याधर और पृथिवीमें भूमिगोचरी सब यही कहते भये-हे देव ! प्रसन्न होय सौम्यता भजो हे नाथ ! भग्नि समान कठोरचित्त न करो सीता सती है सीता अन्यथा नहीं जे महा पुरुषोंकी राणी होवे कदे ही विकार रूप न होवें सब प्रजाके लोक यही वचन कहते भये अर व्याकुल भये मोटी मोटी आंसूओंकी बून्द डारते भये ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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