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एकसौचारवां पर्ण तब रामने कही तुम ऐसे दयावान हो तो पहिले अपवाद क्यों उठाया ? रामने कि रोको श्रज्ञा करी एक तीनसे हाथ चौखटिया वापी खोट हु अर सूके ईधन चन्दन अर कृष्णागुरु तिनकर भरहु अर अग्नि कर जाज्वल्यमान करहु साक्षात् मृत्युका स्वरूप करहु तब किंकरनिने आज्ञा प्रमाण कुदालनिसे खोद अग्निवापिका बनाई अर ताही रात्री महेन्द्रोदय नामा उद्यान में सकल नूपण मुनिकूपूर्व वैरके योग कर महारौद्र वियद्वक्रनामा र क्षीने अत्यन्त उपपग किया सो मुनि अत्यन्त उपसर्गको जीत केवलज्ञानको प्राप्त भये । यह कथा सुन गौतमस्वामी सेश्रेणि कने पूछी-हे प्रभो ! राक्षसीके पर मुनिके पूर्व बैर कहा ? तब गौतमस्वामी कहते भये-हे श्रेणिक ! सुन-विजियाई गिरिकी उत्तर श्रेणी में महा शोभायमान गुजनामा नगर तहां राजा सिंहविक्रम राणी श्री ताके पुत्र सफल भूषण ताके स्त्री आठमो तिनमें मुख्य किरण मंडल मो एक दिन उस ने अपनी सोकिनके कहेसू अपने मामाके पुत्र हेमशिखका रूप चित्रपट में लिखा सो सकलभूपण ने देख कोष किया तब सा स्त्रीनिने कही यह हमने लिखाया है इसका कोई दोष नाहीं तब सकलभूषण कोष तज प्रसन्न भपा । एक दिन यह किरण मंडल पतित्रता पति सहित सूती थी सो प्रमाद थकी वरडकर हेमशिख ऐमा नाम कहा सो यह तो निर्दोष इसके हेमशिखमें भाईकी बुद्धि अर सकलभूषणने कछू और भाव विचारा राणीसे कोपकर वैराग्यको प्राप्त भए अर राणी किरण मंडला भी आर्यिका भई परन्तु धनीसे द्वेष भाव जो इसने मोहि झूटा दोष लगाया सो भरकर गिद्यु. द्वक नामा राक्षसी भई सो पूर्व वैर थ की सफलभूषण स्वामी श्राहार को जांय तब यह अन्राय करै कभी माते हाथियों के बन्धन तुडाय देय हाथी ग्राम में अद्रव करें इनको अन्तराय होय, कमी यह आहार को जांय तब अग्नि लगाय देय कभी यह रजोवृष्टि करे इत्यादि नानाप्रकार के अन्तराय करै कभी अश्व का कभी वृषभ का रूपकर इनके संमुख आवै कभी मार्गमें कांटे बखेरे इस भांति यह पापिनी कुचेष्टा करै । एक दिन स्वामी कायोत्सर्ग धर तिष्ठे थे अर इसने शोर किया यह चोर है मो इसका शोर सुनकर दुष्टोंने पाडे अपमान किया फिर उत्तम पुरुषोंने छुड़ाय दिए एक दिन यह आहार लेकर जाते थे मो पापिनी राक्षसी ने काहू स्त्री का हार लेकर इनके गले में डार दिया अर शोर किया कि यह चोर है हार लिये जाय है तब लोग आय पहुंचे इनको पीडा करी हार लिया भले पुरुषोंने छडाय दिये इस भांति यह ऋचित्त दयारहित पूर्व वैर विरोध से मुनि को उपद्रा करै, गई रात्रिको प्रतिमा योगथर महेंद्रोदय नामा उद्यानमें विराजे थे सो राक्षसीने रौद्र उपसर्ग किया वितर दिखाये पर हस्ती सिंह व्याघ्र सर्प दिखाए अर रूप गुण मंडित नानाप्रकारकी नारी दिखाई, भांति २ के उपद्रव किए परन्तु मुनिका मन न डिगा तब केवलज्ञान उपजा सो केवलीकी महिमा कर दर्शनको इन्द्रादिक देव कल्पवासी भवन वासी व्यंतर जोतिषी कैयक हाथियों पर चढे कैयक सिंहों पर चढे कैयक ऊट खच्चर मीढा बघेरा अष्टापद इनपर चढे कैयक विमान बैठे कैयक रथोंपर चढे कैयक पालकी चढे इत्यादि मनोहर वाहनों पर चढे आए । देवोंकी असवारीके तिर्यच नाहीं देवों ही की माया है, देवही विक्रियाकर तिर्यचका रूप धरें हैं आकाशके मार्ग महाविभूति सहित सर्व दिशामें उद्योत करते आए मुकुट
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