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________________ पत्र-पुराण भयानक है । यामें यह मनुष्य-क्षेत्र रत्नद्वीप समान है सो महा कष्टसे पाइए है तातै बुद्धिवंतनको इस रत्नद्वीपविष नेमरूप रत्न ग्रहण अवश्य योग्य है । यह प्राणी या देहको तजकरि परभववियु जायगा अर जैसे कोई मूर्ख तागाके नार्थ महामणिको चूर्ण करै तैसे यह जडबुद्धि विषयके अर्थ धर्मरत्नको चूर्ण करै है अर ज्ञानी जीवोंको सदा द्वादश अनुप्रेक्षाका चितरन करना-ये शरीरादि सर्ग अनित्य है, आत्मा नित्य है या संसारविगै कोई शरण नहीं, आपको आप ही शरण है तथा पंच परमेष्ठीका शरण है अर संसार महा दुखरूप है चतुर्गतिविणै काहू ठौर सुख नहीं, एक सुखका धाम सिद्धपद है। यह जीव सदा अकेला है याका कोई संगी नहीं अर सर्ग द्रव्य जुदे जुदे हैं कोई काहसे मिल नहीं अर यह शरीर महां अशुचि है, मल मूत्रका भरा भाजन है, आत्मा निर्मल है अर मिथ्यात्व अत्रत कषाय योग पमोदनिकर कर्मका आश्रव होय है अर व्रत समिति गुप्ति दशलक्षण धर्म अनुप्रेक्षा-चतवन पर पदजय चारित्रकरि संवर होय है आश्रवका रोकना सो संवर सर तपकर पूर्वोपार्जित कर्मकी हिर्जरा होय है अर यह लोक पद्व्यात्मक अनादि अकृत्रिम शाश्वत है, लोकके शिखर सिद्ध लोक है । लोकालोकका ज्ञायक मात्मा है पर जो आत्मस्वभाव सो ही धर्म है. जीवदया धर्म है अर जगतविणे शुद्धोपयोग दुर्लभ है सोई निर्वाणका कारण है। द्वादश अनुप्रेक्षा विवेकी सदा चितवै । या भांति मुनि अर श्रावकके धर्म कहे । अपनी शक्ति प्रमाण जो धर्म सेवै उत्कृष्ट मध्यम तथा जघन्य सो सुरलोकादिविषै तैसा ही फल पावै । या भांति केवली कही तव भानुकर्ण कहिये कुम्भकर्णने केवलीसे पूछी-हे नाथ ! भेदसहित नियमका स्वरूप जानना चाहूँ हूँ। तब भगवानने कही-हे कुम्भकर्ण ! नियममें अर तपमें भेद नहीं, नियमकर युक्त जो प्राणी सो तपस्त्री कहिए तातै बुद्धिमान नियमविणै सर्वथा यत्न करे । जेता अधिक नियम करै सो ही भला अर जो बहुत न बने तो अन्य ही नियम करना परन्तु नियम विना न रहना जैसे वनै सुकृतका उपार्जन करना, जैसे मेघकी बूंद परे हैं तिन बूंदनिकरि महानदीका प्रवाह होय जाय है सो समुद्रवि जाय मिले है तैसे जो पुरुष दिनविणे एक मुहूर्तमात्र भी आहारका त्याग करै सो एक मासमें एक उपवासके फलको प्राप्त होय ताकर स्वर्गविणे बहुत काल सुख भोग, मनवांछित भोग प्राप्त होय, जो कोई जिनमार्गकी श्रद्धा करता संता यथाशक्ति तप नियम करै तो महात्माके दीर्घ काल स्वर्गविणे सुख होय बहुरि म्वर्ग” चयार मनुष्य भवविणे उत्तम भोग पावै है । एक अज्ञान तापसीकी पुत्री वनविङ्ग रहे सो महादुखवंती बदरीफल (वेर) आदि कर आजीविका पूर्ण करै ताने सत्संगत एक मुहूर्तमात्र भोजनका नियम लिया ताके प्रभावतें एक दिन राजाने देखी, आदरत परणी, बहुत संपदा पाई श्रर धर्ममें बहुत सावधान भई, अनेक नियम अादरे सो जो प्राणी कपटरहित होय जिनवचनको धारण करै सो निरन्तर सुखी होय, परलोकमें उत्तम गति पावै अर जो दो मुहूर्त दिवस प्रति भोजनका त्याग करे ताके एक मामविणै दो उपवासका फल होय। तीस मुहूर्तका एक अहोरात्र गिनो अर तीन मुहूर्त प्रति दिन भन्न जलका त्याग कर तो एक मासविणे तीन उपवासका फल होय । या मांति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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