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चौदहवां पर्व
१४ चित्त श्रीभगवानके चैत्यालय करावै जिनबिंब पधरावै है जिनपूजा करै है जिनस्तुति करै है ताके इस जगत विष कछु दुर्लभ नाहीं। नरनाथ कहिए राजा होहु अथवा कुटुम्बी कहिए किसान होहु, धनाढय होहु तथा दलिद्री होहु जो मनुष्य धर्मसे युक्त है सो सर्व त्रैलोक्यमें पूज्य है । जे नर महाविनयवान हैं अर कृत्य अकृत्य के विचारविणे प्रवीण हैं जो यह कार्य करना यह न करना ऐसा विवेक थरै हैं ते विवेकी धर्मके संयोगते गृहस्थि निवि मुख्य हैं । जे जन मधु मांस मद्य यादि अभक्ष्यका संसर्ग नहीं करै हैं तिन हीका जीवन सफल है। अर शंका कहिए जिनवचनों में सन्देह, कांक्षा कहिए इस भवविष अर परभवविष भोगोंको बांछा, विचिकित्सा कहिए रोगी वा दुखीको देख घृणा करणी आदर नहीं करना । अर आत्मज्ञ नसे दूर जे परदृष्टि कहिए जिनधर्मसे पराडमुख मिथ्यामार्गी तिनकी प्रशंसा करनी अर अन्य शासन कहिए हिंसामार्ग ताके सेवनहार जे निर्दयी मथ्या दृष्टि उनके निकट जाय स्तुति करनी, ये पं सम्यक दर्शन के अतीचार हैं। जिनके त्यागी जे जंतु कहिये प्राणी ते गृहस्थिनिविष मुख्य हैं अर जा प्रिय दर्शन कहिए प्यारा है दर्शन जाका, सनर वग्त्रा मरग पहिरे, सुगंध शरीर पयादा थरतीको देखता निर्विकार जिनमदिरमें जाय है, शुभ कानिदै उद्यमी ताके पुण्यका पार नाही अर जो पराए द्रव्यको तण समान देखै है अर पर जीको आप समान देखे हैं अर परनारीको माता समान देखें हैं सो धन्य हैं अर जाके ये भाव हैं-ऐमा दिन कबहोयगा जो मैं जिनेंद्री दीक्षा लेकर महामुनि होय पृथ्वीवियु निर्वेन्द्र विहार करूंगा, ये कर्म शत्रु अनादिके लगे हैं तिनका क्षयकर कब सिद्ध पद प्राप्त करू या भांति निरंतर ध्यानकर निर्मल भया है चित्त जामा साके कर्म कैसे रहें, भयकर भाग जाय।
. . कैयक विवेकी सात आठ भ में मुक्त जाय हैं, कैक दो तीन भरविणे संसार समुद्रके पार होय हैं, कैयक चरमशरीरी उग्र तपकर शुद्ध पयोगके प्रस.दरों तद्भव मोक्ष होय हैं जैसे कोई मार्गका जाननहारा पुरुष शीघ्र चले तो शीघ्र ही स्थानकको जाय पहुंचे अर कोई थीरे धीरे चलै तौ धने दिनमें जाय पहुंचे परन्तु मार्ग चले सो पहुंचे ही अर जो माग ही न जान अर सौ सौ योजन चले तो भी भ्रमता ही रहै स्थानकको न पहुंचे तैसे मिथ्या दृष्टि उन तप करें तो भी जन्म मरण वर्जित जो अविनाशी पद ताहि न प्राप्त होय, संसार वन ही विषै भ्र, नहीं पाया है मुक्तिका मार्ग तिनने । कैसा है संसारवन ? मोहरूप अंधकारकर आच्छादित है अर कषायरूप सोकर भरा है । जिस जीवके शील नाहीं, छत नाहीं, सम्यक्त्व नाही, त्याग नाही, वैराग्य नाही, सो संसार समुद्रको कैसे तिरे । जैस विन्ध्याचल पर्वततै चला जा नदीका प्रवाह वाकरि पर्वत समान ऊंचे हाथी वह जांय तहां एक शसा क्यों न बहे तैसे जन्म जरा मरणरूप भ्रमणको धरै संसाररूप जो प्रवाह ताविणे जे कुतीर्थी कहिए मिथ्यामार्गी अज्ञान तापस हैं तेई. डूबे हैं फिर उनके भक्तोंका क्या कहना ? जैन शिला जलविणे तिरणे शक्त नहीं तैसे परिग्रहके थारी कुदृष्टि शरणागतोंको तारणे समर्थ नाहीं अर जे तत्वज्ञानी तपकर पापोंके भस्म करणहारे.. हलके हो गये हैं. कर्म. जिनके, ते उपदेशथकी प्राणियोंकों वारने समर्थ हैं. यह संसार सागर महार
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