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पभ-पुराण __ अर चार दिशा चार विदिशा एक अधः एक ऊर्ध्व इन दश दिशाका परिमाण करना कि इस दिशाको एती दूर जाऊंगा, आगे न जाऊंगा। बहुरि अपध्यान कहिये खोटा चितवन, सपोपदेश कहिये अशुभ कार्यका उपदेश, हिंसादान कहिये विष फांसी लोहा सीसा खड्गादि शस्त्र तथा चाबुक इत्यादि जीवनके मारनेके उपकरण तथा जे जाल रस्मा इत्यादि बन्धनके उपाय तिनका व्यापार अर श्वान मार्जार चीतादिका पालना अर कुश्रुतिश्रवण कहिये कुशास्त्र का श्रवण, प्रमादचर्या कहिये प्रमादसे वृथा कायके जीवोंकी बाधा करनी ये पांच प्रकारके अनर्थ दण्ड तजने अर भोग कहिये आहारादिक, उपभोग कहिये स्त्रीवस्त्राभूषणादिक तिनका प्रमाण करना अर्थात् यह विचार जे अभक्ष्य भक्षणादि तिनका नियमरूप प्रमाण यह भोगोप. भोग परिसंख्यावत कहिये । ये तीन गुणत्रत कहे पर सामायिक कहिये समताभाव पंचपरमेष्ठी भर जिनयम जिनवचन जिनप्रतिमा जिनमंदिर तिनका स्तवन अर सर्व जीवोंसे क्षमाभाव सो प्रभात मध्याह्न सायंकाल छै छ घड़ी तथा चार २ घड़ी तथा दो दो घड़ी अवश्य करना कर प्रोषथोपवास कहिये दो आठे दो चौदस एक मास में चार उपवास पोडश पहरके पोसे संयुक्त अवश्य करने । सोलह पहरतक संसारके कार्यका त्याग करना आत्मचिंतवन तथा जिन भजन करना भर अतिथि संविभाग कहिये अतिथि जे परिग्रहरहित मुनि जिनके तिथि वार का विचार नहीं सो आहारके निमित्त आवें, महागुणोंके धारक तिनको विधिपूर्वक अपने वित्तानुसार बहुत श्रमदरसे योग्य आहार देना अर श्रायुके अन्तविणै अनशन व्रत धर समाधिमरण करना सो सल्लेखनाव्रत कहिये । ये चार शिक्षाव्रत कहे। पांच अणुव्रत तीन गुणवत चार शिक्षाप्रत ये बारहवत जानने । जे जिनधर्मी हैं तिनके मद्यमांस मधु माखण (मक्खन) उदंबरादि अयोग्य फल रात्री भोजन पीथा अन्न अनछाना जल परदारा तथा दासी वेश्यासंगम इत्यादि अयोग्य क्रियाका सर्वथा. त्यांग है। यह श्रावकके धर्म पालकर समाधिमरणकर उत्तम देव होय फिर उत्तम मनुष्य होय. सिद्धपद पावै है अर जे शास्त्रोक्त आचरण करनेकों असमर्थ हैं न श्रावकके वृत पालें न यतिके परन्तु जिनभाषितकी दृढ़ श्रद्धा है ते भी निकट संसारी हैं सम्यक्त्वके प्रसादसे व्रतको धारण का शिवपुरको प्राप्त होय हैं। सर्व लाभमें श्रेष्ठ जो सम्यग्दर्शनका लाभ ताकरि ये जीव दुर्गतिके वाससे छूटें हैं। जो प्राणी मावसे श्रीजिनेन्द्रदेवको नमस्कार करे हैं सो पुण्याधिकारी पापोंके क्लेशसे निवृत्त होय हैं अर जो प्राणी भावकर सर्वज्ञदेवको सुमरे है ता भव्यजीवकं अशुभकर्म कोट मवके उपारजे तत्काल क्षय होय हैं अर जो महाभाग्य त्रैलोक्यविष सार जो अरिहंत देव विनको हृदयविष धारे हैं सो भवकूपविष नहीं परे हैं। ताके निरन्तर सर्व भाव प्रशस्त हैं अर वाको अशुभ स्वप्न न आवें, शुभ स्वप्न ही आवें अर शुभ शकुन ही होय हैं अर जो उत्तम जन "भई नमः" यह वचन भावतें कहे हैं ताके शीघ्र ही मलिन कर्मका नाश होय है याविष सन्देह नाहीं। मुक्ति-योग्य प्राणीका चित्त रूप कुमुद परम निर्मल वीतराग जिनचन्द्रकी कथारूप जो किरण तिनके प्रसंगर्ते प्रफुल्लित होय है अर जो विवेकी अरिहंत सिद्ध साधुवोंके ताई नमस्कार कर है सो सव जिनपनियोंका प्यारा है ताहि अल्प संसारी जानना अर जो. उदार,
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