________________
१४०
चौedia धर्ममें लवलीन. जिन शास्त्रोंके पारगामी अर सांख्य पातंजल बौद्ध मीमांसक नैयायिक वैशेषिक बेदान्ती इत्यादि पर शास्त्रोंके भी बेचा महा बुद्धिमान् सम्यग्दृष्टि यावज्जीव पापके त्यागी यम नियमके धरनहारे परम संयमी परम शान्त परम त्यागी निगर्व अनेक ऋद्धिसंयुक्त महामंगलमूर्ति जगत के मण्डन महागुणवान् केई एक तो उस ही भवमें कर्म काट सिद्ध होंय कई एक उत्तम देव होय ढा तीन भयमें ध्यानाग्निकर समस्त कर्म काष्ठ बाल अविनाशी सुखको प्राप्त होय हैं यह यतीका धर्म कहा । श्रथ स्नेहरूपी पींजरे में पड़े जे गृहस्थी तिनका द्वादशव्रतरूप जो धर्म सो सुनो। पांच अणुव्रत तीन गुणनत चार शिक्षात्रत अर अपनी शक्ति प्रमाण हजारों नियम त्रसघातका त्याग र मृषावादका परिहार परधनका त्याग परदारा परित्याग र परिग्रहका परिमाण तृष्णाका त्याग ये पांच अणुव्रत र दिशादिका प्रमाण देशों का प्रमाण जहां जिनधर्मका उद्योत नहीं तिन देशनका त्याग अनर्थ दण्डका त्याग ये तीन गुणत्रत र सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि संविभाग भोगोपभोग - परिमाण ये चार शिक्षाव्रत । ये बारह व्रत हैं अब इन व्रतोंके भेद सुनो। जैसे अपना शरीर आपको प्यारा है तैसा सबनिको प्यारा है ऐसा जान सर्व जीवोंकी जीवदया करना । उत्कृष्ट धर्म दया ही भगवानने कहा है, जे निर्दई जीद ने हैं तिनके रंचमात्र भी धर्म नाहीं अर जामें परजीवको पीडा होंय सो वचन न कहना परबाधाकारी वचन सोई मिथ्वा अर परउपकाररूप वचन सोई सत्य र जे पापी चोरी करें पराया धन हरें हैं वे इस भवमें बध बन्धनादि दुख पावे हैं, कुमरणसे मरे हैं श्रर परभव नरकमें पड़े हैं नाना प्रकारके दुःख पावैं हैं चोरी दुःखका मूल है तातें बुद्धिमान सर्वथा पराया धन नहीं हरें हैं सो जाकर दोनों लोक बिगड़ें ताहि कैसे करें पर सर्पि समान परनारी को जान दूरहीतें तजो यह पापिनी परनारी काम लोभके वशीभूत पुरुषको नाश करनहारी है । मर्पणी तो एक भव ही प्राण हरे है यर परनरी अनन्त भव प्राण हरे है । कुशल पातें निगोद में जाय हैं सो अनन्त जन्म मरण करे हैं, पर इस ही भवमें मारना. ताडनादि अनेक दुःख पावे हैं । यह परदारासंगम नरक निगोदके दुस्सह दुःखका देनहारा है. जैसे कोई पर पुरुष व स्त्रीका पराभव करें तो आपको बहुत बुरा लगै अति दुःख उपजै तैसे ही सकलकी व्यवस्था जानवी अर परिग्रहका परमाण करना बहुत तृष्णा न करनी जो यह जीव इच्छाको न रोके तो महा दुखी होय । यह तृष्णा ही दुःखका मूल है, तृष्णा समान अर व्याधि नाहीं । या ऊपर एक कथा है सो सुनो- एक भद्र दूजा कंचन ये दोय पुरुष थे तिनमें भद्र फलादिकका बेचनहारा सो एक दीनार मात्र परिग्रहका प्रमाण करता भया । एक दिवस: मार्ग में दीनारोंका बटवा पड़ा देखा उसमेंसे एक दीनार कौतूहलकर लीनी श्रर दूजा कांचन है नाम जिसका ताने सर्व बटुवा ही उठाया सो दीनारका स्वामी राजा उसने बटवा उठावता देख कांचनको पिटाया र गामते कढाया अर भद्रने एक दीनार लीनी हुती सो राजाको बिना मांगे स्वयमेव सौंप दीनी । राजाने भद्रका बहुत सन्मान किया ऐसा जानकर बहुत तृष्णा न करनी, संतोष धरना ये पांच अणुव्रत कहे ।
---
I
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org