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________________ चौदहमा पर्न जेता अधिक नियम देता ही अधिक फल । नियमके प्रसादकरि ये प्राणी स्वर्गविणे अद्भुत सुख भोगे हैं अर स्वर्गत चयकर अद्भुत चेष्टाके धारण हारे मनुष्य होय हैं, महा कुलवंती महारूपवंती महागुणवंती महालावण्यकर लिप्त मोतियोंके हार पहरे पर मनके हरनहारे जे हाव भाव विलास विभ्रम तिनको धरें जे शीलवंती स्त्री तिनके पति होय हैं अर स्त्री स्वर्गत चयकर बड़े कुलविणे उपजे बड़े राजाओंकी रानी होय हैं, लक्ष्मी समान है स्वरूप जिनका अर जो प्राणी रात्रि भोजनका त्याग करै हैं अर जलमात्र नाहीं ग्रई हैं नाके अति पुण्य उपजै है, पुण्यकर अधिक प्रताप होय है अर जो समापदृष्टि ब्रत घार ताके फलका कहा कहना १ विशेष फल पावै स्वर्गविगै रत्नई विमान तहां अप्सराबोंके समूहके मध्यमें बहुत काल धर्मके प्रभावकर तिष्ठ है बहुरि दुर्लभ मनुष्यदेही पावै तातें सदा धर्मरूप रहना अर सदा जिनराजकी उपासना करनी । जे धर्मपरायण हैं तिनको जिनेंद्रका अाराधन ही परम श्रेष्ठ है। कैसे हैं जिनेद्रदेव ? जिनके समोसरणकी भूमि रत्न कंचन कर निरमापिन देव मनुष्य ति चनिकर वंदनीक है। जिनेंद्र देव काठ प्रातिहार्य चौंतीस अतिशय महा अद्भुत हजारों सूर्य समान तेज महासुन्दर रूप नेत्रोंको सुखदाता हैं, जो भन्यजीव भगवानको भावकर प्रणाम करै सो विचक्षण थोड़े ही कालविणे संसार समुद्रको तिरै। श्री वीतरागदेवके सिवाय कोई दूसरा जीवोंको कल्याणकी प्राप्तिका उपाय और नाही तातें जिनेंद्रचंद्रहींका सेवन योग्य है अर अन्य हजारों मिथ्यामार्ग उक्ट मार्ग हैं तिनविष प्रमादी जीव भूल रहे हैं, तिन कुतीनिके सम्यक्त्व नाहीं पर अन्य मद्य मांसादिकके सेवन दया नाहीं अर जैनविष परम दया है, रंचमात्र भी दोषकी प्ररूपणा नाही पर अज्ञानी जीवोंके यह बड़ी जड़ता है जो दिवसमें श्राहारका त्याग करें और रात्रिमें भाजन कर पाप उपार्जे, चार पहर दिन अनशन व्रत किया ताका फल रात्रिभोजनतें जाता रहै, महा पापका बन्ध होय, रात्रीका भोजन महा अधर्म जिन पापियोंने धर्म कह कल्पा, कठार है चित्त जिनका तिनको प्रतिबोरना बहुत बटिन है। जब सूर्य अस्त हाय जीव जन्तु दृष्टि न आवै तब जो पापी विषयोंका लालची भोजन करे है सो दुर्गतिके दुःखको प्राप्त होय है योग्य अयोग्यको नहीं जाने है । जो अविवेकी पापबुद्धि अन्धकारके पटल कर आच्छादित भए हैं नेत्र जाके रात्रीको भोजन कर हैं सो मक्षिका कीट केशादिकका भक्षण करै हैं । जो रात्री भोजन कर हैं सो डाकनि राक्षस स्वान मार्जार {मा आदिक मलिन प्राणियोंका उच्छिष्ट आहार करे हैं। अथवा बहुत प्रपंच कर कहा ? सवथा यह व्याख्यान है कि जो रात्रीको भोजन करे है सो सर्व अशुचिका भोजन करें है, सूर्यके अस्त भए पीछे कछु दृष्टि न आवै तातें दोय मुहूर्त दिवस वाकी रहै तब से लेकर दो मुहूर्त दिन चढ़े तक विवेकियोंको चौविधि आहार न करना । अशन पान खाद स्वाद ये चार प्रकारके आहार तजने । जे रात्रीभोजन करे हैं ते मनुष्य नहीं, पशु हैं । जो जिनशासनत विमुख व्रत नियमसे रहित रात्री दिवस भखवे ही करे हैं सो परलोकमें कैसे सुखी होय १ जो दयारहित नीच जिनेन्द्रकी जिन धर्मकी पर धर्मात्मावोंकी निंदा करें हैं सो परभवमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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