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________________ बहत्तरवां पव ४२७ रामपै पठाबों तो लोग मोहि असमर्थ जानें अर युद्ध करिये तो महा हिंसा होय, कोई ऐसे हैं जिनके दया नाहीं केवल क्रूरता रूप हैं, ते भी काल क्षेप करें हैं और कई एक दयावान हैं संसार कार्यसे रहित हैं ते सुखसे जीव है । मानी युद्धाभिलाषी र कछू करुणाभाव नाहीं सो हम सारिखे महा दुखी हैं र रामके सिंहवाहन पर लक्ष्मणके गरुडवाहन विद्या सो इनकर महा उद्योत है सो इनको शस्त्ररहित करू' श्रर जीवते पकडू बहुरि धन दूं श्रर सीता दूं तो मेरी बडी कीर्ति होय र मोहि पाप न होय यह न्याय है । तातैं यही करू ऐसा मनमें धार महा विभव संयुक्त रावण राजलोक विषै गया जैसे माता हाथी कमलनिके वनविषै जाय । बहुरि विचारी अंगद बहुत नीति करी या बाततैं अति क्रोध किया अर लाल नेत्र होय आए रावण होंठ डमता वचन कहता भयावह पापी सुग्रीव नाहीं दुग्रीव है ताहि निग्रीव कहिये मस्तकरहित करूँगा ताके पुत्र अंगदसहित चन्द्रहास खड्ग कर दोय ट्रक करूंगा अर तमोमण्डलको लोग भामण्डल कहैं सो वह महा दुष्ट है ताहि दृढबंधन से बांध लोहके मुगदरोंसे कूट मारूंगा श्रर हनुमानको तीक्ष्ण करोंतकी धारसे काठके युग में चांग बिहराऊंगा । वह महा अनीति है ! एक राम न्यायमार्गी है ताहि बांगा अर समस्त अन्यायमार्गी हैं तिनको शस्त्रनिकर चूर डारुगा ऐसा विचार कर रावण तिष्ठा । अर उत्पात सैकडों होने लगे-सूर्यका मण्डल युव समान तीक्ष्ण दृष्टि पडा र पूर्णमासीका चन्द्रमा अस्त होय गया, आसन पर भूकम्प भया, दशो दिशा कम्पायमान भई, उल्कापात भए, शृगाली ( गीदडी) विरमशब्द बोलती भई, तुरंग नाड हिलाय विरस विरूप हींसते भए, हाथी रूक्ष शब्द करते भए, सूण्ड से धरती कूटने भए, यक्षनिकी मूर्ति अश्रुपात पडे. वृक्ष मूलतें गिर पडे, सूर्य के सन्मुख काग कटुक शब्द करते भए ढीले पांख किए महा व्याकुल भये अर सरोवर जलकर भरे हुने शोषको प्राप्त भए पर गिरियोंके शिखर गिर पडे अर रुधिरकी वर्षा भई | थोडेही दिनमें जानिए है लंकेश्वर की मृत्यु होय ऐसे अपशकुन और प्रकार नाही जब पुण्यक्षीण होय तब इन्द्र भी न बचें पुरुष में पौरव पुण्यके उदय कर होय है जो कछू प्राप्त होना होय सोई पाइये है, हीन अधिक नाहीं । प्राणियोंके शूरवीरता सुकृतके बल कर है । देखो, रावण नीति शास्त्र केविषै प्रवीण समस्त लौकिक नीति रीति जाने व्याकरणका पाठी महा गुणनिकर मंडित सो कर्मनिकर प्रेरा संता अनीति मार्गको प्राप्त भया मूढबुद्धि भया । लोक में मरण उपरांत कोई दुःख नाहीं मो याको अत्यन्त गर्वकर विचार नाहीं । नक्षत्रनिके बलकर रहित पर ग्रह सब ही क्रूर आए सो यह अविवेकी रण क्षेत्रका अभिलाषी होता भया । प्रतापके भंगका है भय जाको अर महा शू' वीरताके रससे युक्त यद्यपि अनेक शास्त्रनिका अभ्यास किया है तथापि युक्त युक्तको न देखें । गौतमस्वामी राजा श्रेणिकतें कहे हैं - हे मगधाधिपति ! रावण महामानी अपने मनमें विचारे है सो सुन-सुग्रीव भामण्डलादिक समन्तको जीत अर कुम्भकरण इन्द्रजीत मेघनादको छुडाय लंका में लाऊंगा बहुरि वानवंशिनिका वंश नाश अर भामण्डलका पराभव करूंगा घर भूमिगोचरिनिको भूमिमें न रहने दूंगा अर शुद्ध विद्याधरनिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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