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________________ بعدن منطقطعظمطالعهد طف ره خاطره تعد ४२६ पद्म पुराण भाई भामण्डलको मत हना सुन । यह विचार कर व्याकुल है चित्त जाका कांपती चिन्तारूप तिष्ठे है वहां रावण आया सो कहता भया हे देवी ! मैं पापीने कपटकर तुझे हरी सो :यह बात क्षत्री कुलमें उत्पन्न भए हैं जे धीर अतिवीर तिनको सर्वथा उचित नाही, परन्तु कम की गति ऐसी है मोहकर्म बलवान है और मैं पूर्व अनन्तवीर्य स्वामीके समीप ब्रत लिया हुता जो परनारी मोहि न इच्छै ताहि मैं न ग्रहं उर्वशी रंभा अथवा और मनोहर होय तो भी मेरे प्रयोजन नाहीं। यह प्रतिज्ञा पालो संते मैं तेरी क्या हो की अभिलाषा करी परन्तु बलात्कार रमी नहीं । हे जगतविष उत्तम सुन्दरी ! अब मेरी भुनानिकर चलाए जे वाण तिनसे तेरे अवलम्बन राम लक्ष्मण मिदे ही जान अर तू मेरे संग पुष्पक विमानमें बैठ पान से बिहार कर । सुमेरुके शिखर चैत्य वृक्ष अनेक वन उपवन नदी सरोवर अवलोकन करती विहार कर ! तब सीता दोनों हाथ कानोंपर धर गद्गद् वागीसे दीन शब्द कहनी भई--हे दशानन ! तू बडे कुलविष उपजा है तो यह करियो जो कदाचित् संग्राममें तेरे अर मेरे बल्ल के शस्त्रप्रहार होय तो पहले यह संदेशा कहे घगैर मेरे कंथको मत हतियों। यह कहियो-हे पद्म ! भामण्डलकी बहिनने तुमको यह कहा है जो तिहारे विनोगते महाशोकके भारकर महा दुःखी हूं मेरे प्राण तिहारे जीव ही तक हैं मेरी दशा यह भई हैं जैसे पवन की हती दीपककी शिखा, हे राजा दशरथके पुत्र, जनककी पुत्रीने तुमको बारम्बार स्तुतिकर यह की हे तिहरे-दशनकी अभिलाषाकर यह प्राण टिक रहे हैं, ऐसा कहकर मूर्छि । होय भूभपै पडो जैसे पाते हाथीते भग्न करी कल्पवृक्षकी बेल गिर पड़े, यह अवस्था महासतीकी देख रावणका मन कोमल भया परम दुःखी भया यह चिन्ता करता भया--अहो कर्मनिके योगकर इनका निःसंदेह स्नेह है इनके स्नेहका क्षय नाहीं अर थिक्कार मोको मैं अति अयोग्य कार्य किया जो ऐसे स्नेहवान युगलका वियोग किया, पापाचारी महानीच जन समान मैं निःकारण अपयशरूप मलसे लिप्त भया, शुद्धचन्द्रमा समान गोत्र हमारा, मैं मलिन किया। मेरे समान दुरात्मा मेरे वंशमें न भया ऐमा कार्य काहुने न किया सो मैंने किया। जे पुरुषों में इन्द्र हैं ते नारीको तुच्छ गिने हैं, यह स्त्री साक्षात् विषफल तुल्य है क्लेशकी उत्पत्तिका स्थानक सर्पके मस्तककी मणि समान अर महा मोहका कारण, प्रथम ती स्त्री मात्र ही निषिद्ध हैं अर परस्त्रीकी कहा बात ? सर्वथा त्याज्य ही है। परस्त्री नदी समान कुटिल महाभयंकर धर्म अर्थका नाश करणहारी सदा सन्तोंको त्याज्य ही है । मैं महा पापकी खान अब तक यह सीता ममी देवांगनासे भी अति प्रिय भासती थी सो अव विषके कुम्भ के तुल्य भास है। यह तो केवल राम तूं अनुरागिनी है । अबलग यह न इच्छती थी परन्तु मेरे अभिलाषा थी अब जीर्ण तणवत भासै है। यह तो केवल रामसे तन्मय है मोसे कदाचित् न मिले, मेरा भाई महा पण्डित विभीषण सब जानता हुता सो मोहि बहुत समझाया, मेरा मन बिकारको प्राप्त भया सो न मानी तात द्वेष किया। जब विभीषणके वचननिकर मैत्रीभाव करता तो नीके था अब महा युद्ध भया, अनेक इते गये अब कैसी मित्रता ? यह मित्रता सुभटोंको योग्य नाहीं अर युद्ध करके बहुरि दया पालनी यह बने नाही, अहो मैं सामान्य मनुष्यकी नाई संकटमें पडा हूँ जो कदाचित् जानकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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