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बहत्तरवां पर्व
४२५ भया-हे प्रिप्रे! वह पापी ऐसी चेष्टा करै है सो मृत्युके पाशकर बंधा हैं। तुम दुख तजो जैसे सदा आनन्द रूप रहो हो ताही भांति रहो, मैं सुग्रीव को निग्रीव कहिए मस्तकरहित भूमिपर प्रभात ही करूंगा अर वे दोनों भाई राम लक्ष्मण भूमिगोचरी कीट समान हैं तिनपर कहा कोप, ये दुष्ट विद्याधर सब इनपै भेले भए हैं तिनका क्षय करूंगा, हे प्रिय ! मेरी भोंह टेढी करनेही में शत्रु विलाय जांय अर अब तो बहुरूपिणी महाविद्या सिद्ध भई मोसे शत्रु कहा जीवे । या भांति सब स्त्रीनिको महा थीर्य बंधाया मनमें नानता भया मैं शत्रु हते। भगवानके मन्दिरसे बाहिर निकसा नानाप्रकारके बादित्र बाजते भए, गीत नृत्य होते भए, रावणका अभिषेक भया, काम देव समान है रूप जाका, स्वर्ण रत्ननिके कलशनिकर स्त्री स्नान करावती भई । कैसी हैं स्त्री ? कातिरूप चांदनोसे मंडित है शरीर जिनका चन्द्रमा समान वदन अर सुफेद मणिनिके कलशनिकर स्नान करावें सो अद्भुत ज्योति भासती मई अर कई एक स्त्री कमल समान कांतिको धरें मानों सांझ फूल रही है। अर उगते सूर्य समान सुवर्णनके कलश तिनकर स्नान करावें सो मानों सांझ ही जल वरसे हैं पर कई एक स्त्री हरित मणिके कलशनिकर स्नान करावती अतिहर्षकी भरी शोभे हैं मानों साक्षात् लक्ष्मी ही हैं । कमल पत्र हैं कलशनिके मुख पर, अर कैयक केलेके गर्भ समान कोमल महासुगन्ध शरीर जिनपर भ्रमर गुंजार करे हैं वे नानाप्रकारके सुगन्ध उबटना कर रावण को नानाप्रकारके रत्नजडित सिंहासन पर स्नान करावती भई । सो रावणने स्नानकर
आभूषण पहिरे, महा सावधान भावनिकर पूर्ण शांतिनाथ मन्दिरमें गया। वहां अरहन्तदेवकी पूजा कर स्तुति करता भया, बारम्बार नमस्कार करता भया बहुरि भोजनशालामें आया, चार प्रकारका उत्तम आहार किया-प्रशन पान खाद स्वाद बहुरि भोजन कर विद्याकी परख निमित्त क्रीडा भूमिमें गया, वहां विद्याकर अनेकरूप बनाये । नानाप्रकार के अद्भुत कर्म विद्याधरनिसे न बनें सो बहुरूपिणी विद्यासे कीए । अपने हायकी घात कर भूकम्प किया, रामके कटकमें कपियों को ऐसा भय उपजो मानों मृत्यु भाई अर रावणको मन्त्री कहते भए---हे नाथ ! तुम टार राघवको जीतनहारे और नाहीं, राम महा योधा है और क्रोधवान होवे तब कहाँ कहना ? सो ताके सन्मुख तुम ही आवो पर कोई रण में रामके सन्मुख मावने को समर्थ नाहीं।
अथानन्तर रावणने बहुरूपिणी विद्यासे मायामई करक बनाया अर आप उद्यानविर्षे जहां सीता तिष्ठे तहां गया मंत्रिनिकर मंडित जैसे देवनिकर संयुक्त इंद्र होय, सो सूर्य समान कांतिकर युक्त आवता भया तब ताको आवता देख विद्याधरी सीतामों कहती भई-हे शुभे ! महा ज्योतिवन्त रावण पुष्पक विमानसे उतरकर आया जैसे ग्रीषम ऋतु में सूर्य की किरणसे थाताप को पाता गजेंद्र सरोवरीके ओर आवे तैसे कामरूप अग्निसे तापरूप भया आवै है। यह प्रमद नामा उद्यान पुष्पनिकी शोभाकर शोभित जहां भ्रमर गुजार करे हैं। तव सीता बहरूपिणी विद्याकर संयुक्त रावणको देखकर भयभीत भई मनमें विचार है याके बलका पार नाही सो राम लक्ष्मण हूं याहि न जीतेंगे । मैं मंदभागिनी रामको अथवा लक्ष्मणको अथवा अपने
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