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'पद्म-पुराण व्याकुल करे तैसे रावणके समीप सब राजलोकोंको क्लेश उपजाया अर अंगद क्रोधकर रावणसू कहता भया–हे अधम राक्षम ! तैो कपटकर सीता हरी, अब हम देखते तेरी समस्त स्त्रीनिक हरे हैं तोमें शक्ति होय तो यत्न कर ऐसा कहकर याके आगे मन्दोदरीको पकड ल्याया जैसे मृ. गराज मृगीको पकड ल्यावै, कंगायमान हैं नेत्र जाके, चोटी पकड रावणके निकट खींचता भया जैसे भरत राजलक्ष्मीको खींचे अर रावण कहता भया-देख ! यह पटरानी तेरे जीवहूतै प्यारी मन्दोदरी गुग्णवंती ताहि हम हर ले जांय हैं। यह सुग्रीवके चमरग्राहणी चेरी होयगो, सो मन्दोदरी प्रांखिनः आंसू डारती भई, अर विलाप करने लगी। रावण के पायनमें प्रवेश करे कभी भुजनिमें प्रवेश करे अर भरतारसों कहती भई-हे नाथ, मेरी रक्षा करहु ऐसी दशा मेरी कहा न देखो हो, तुम क्या और ही होय गये । तुम रावण हो अक और ही हो । अहो जैसी निरपथ मुनि की वीतरागता होय तैसी तुम वीतरागता पकडी सो ऐसे दुख में यह अवस्था क्या ? धिक्कार तिहारे बल को जो या पापीका सिर खड्गसे न काटो। तुम महाबलवान चांद सूर्य समान पुरुषों का पराभव न सहो सो ऐसे रंकका कैसे सहो-हे लंकेश्वर ! ध्या. नमें चित्त लगाया न काहू की सुनो न देखो अधरयंकातन धर बैठे अहंकार तज दिया जैसा समेरुका शिखर अचल होय, तैले अचल होय तिष्ठे, सर्व इन्द्रियनिकी क्रिया तजी, विद्याके माराधनमें तत्सर निश्चल शरीर महावीर तिष्ठे हो मानों काष्ठ के हो अथवा चित्रामके हो, जैसे राम सीताको चितवें तैसे तुम विद्याको चिंतवो हो ऐसे स्थिरता कर सुमेरुके तुल्य भए हो । जब या भांति मन्दोदरी रावणसे कहती भई ताही समय बहुरूपिणी विद्या दशों दिशामें उद्योत करती जय जय कार शब्द उचारती रावणके समीप पाय ठाढी भई, अर कहती भई-हे देव ! आज्ञा में उद्यमी मैं तुमको सिद्ध भई मोहि आदेश देवहु । एक चक्री अर्धचक्रीको टार सिहारी आज्ञा से विमख होय ताहि वश करू या लोकमें तिहारी आज्ञाकारिणी हूं । हम सारिखनकी यही रीति है जो हम चक्रवनियोंसे समर्थ नाहीं । जो तू कहे तो सर्व दैत्यनिको जीतू, देवनिको वश
जो तोसे अप्रिय होय ताहि वशीभूत करू अर विद्याधर तो मेरे तृण समान हैं। यह विद्या वचन सन रावण योग पूर्ण कर ज्योतिका धारक उदार चेष्टाका धरणहारा शांतिनाथके चैत्यालयकी प्रदिक्षणा करता भया । ताहो समय अंगद मन्दोदरीको छांड आकाश गमन कर रामके समीप आया। कैसा है अंगद ? सूर्य · समान है तेज जाका ॥
इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै अशांतिनाथके मंदिरमें रााणको बहुरूपिप्पी विद्याको सिद्ध होनेका वर्णन करनेबाला इकहत्तरबां पर्न पूर्ण भया।। ७१ ।।
अथानन्तर रावणकी अट्ठारह हजार स्त्री रावणके पास एक साथ सर्वे ही रुदन करती भई सुन्दर है दर्शन जिनका । हे स्वामिन् ! सर्व विद्याधरनिके अधीश तुम हमारे प्रभु सो तमको होते संते मूर्ख अंगदने आयकर हमारा अपमान किया । तुम परम तेजके धारक सूर्य समान सो ध्यानारूढ हुने पर विद्याधर आगिया समान, सो तिहारे मूंह आगिला छोहरा सुग्रीवका पुत्र पापी हमको उपद्रव करै । सुनकर तिनके वचन रावण सबकी दिलासा करता भया पर कहता
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