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इकहत्तरवां पर्ण भूमिमें पडे, आगे शांतिनाथके मन्दिरका शिखर नजर आया परन्तु जाय सकें नाहीं, स्फटिक की मीति प्राडा तब वह स्त्री दृष्टि परी थी त्यों एक रन्नमई द्वारपाल दृष्टि पडा हेमरूप बैंतकी छडी जाके हाथमें ताहि कहा-श्रीशान्तिनाथके मन्दिरका मार्ग वताओ सो वह कहा बतावे.? तब वाहि हाथ कूटा सो कूटनहारेकी अंगूरी चूर्ण होय गई । बहुरि आगे गए, जाना यह इन्द्रनीलमणिका द्वार है, शान्तिनाथके चैत्यालयमें जानेकी बुद्धि करी, कुटिल हैं भाव जिनके । आगे एक वचन बोलता मनुष्य देखा ताके केश पकडे अर कहा तू हमारे आगे २ चल, शांतिनाथका मन्दिर दिखाय जब वह अग्रगामी भया तब ये निराकुल भए श्रीशान्तिनाथके मन्दिर जाय पहुंचे। पुष्पांजलि चढाय जय जय शब्द किए स्फटिकके थम्भनिके ऊपर बडा विस्तार देखा सो आश्चर्यको प्राप्त भए मनमें विचारते भए जैसे चक्रवर्तीके मन्दिरमें जिनमन्दिर होय तैसे हैं।
__अंगद पहिलेही वाहनादिक तज भीतर गया ललाट पर दोनों हाथ धर नमस्कारकर तीन प्रदक्षिणा देय स्तोत्र पाठ करना भया, सेना लार थी सो बाहिरले चौकविणे छांडी। कैसा है अंगद ? फूल रहे हैं मंत्र जाके रत्ननिके चित्राम कर मंडल लिखा सोलह स्वप्नेका भाव देखकर नमस्कार किया, आदि मंडपकी भीनिमें वह धीर भगवानको नमस्कार कर शांतिनाथके मंदिरमें गया अति हर्षका भरा भगवा रकी वंदना करता भया । बहुरि देखे तो मन्मुख रावण पद्मासन थरे तिष्ठे है, इन्द्र नीलमणिकी किरनके समूह समान है प्रभा जाकी, भगवान के सन्मुख कैसा बैठा है जैसे सूर्यके सन्मुख राहु बैठा होय । विद्याको ध्यावे जैसे भरत जिनदीक्षाको ध्यावे सो रावणको अंगद कहता भया-हे रावण, कहो अब तेरी कहा बात ? तोसे ऐसी करू जैसी यम न करे तैने कहा पाखण्ड रोपा ? भगवानके सन्मुख यह पाखण्ड कहा ? धिक्कार तुझ पापी कर्मीने वथा शुभ क्रियाका प्रारंभ किया है ऐसा कहकर ताका उत्तरासन उतारा याकी राणियोंको या आगे कूटता भया, कठोर वचन कहता. भया धर रावणके पास पुष्प पडे हुने सो उठाय लिये अर स्वर्णके कमलनि कर भगवानकी पूजा करी, बहुरि रावण कुवचन कहता भया । अर रावणके हाथ मेंसू स्फटिककी माला छीन लई सो मणियां बिखर गई बहुरि मणिये चुन माला परोय रावणके हाथमें दई बहुरि छिनाय लई बहुरि पिरोय गलेमें डाली बहुरि मस्तक पर मेली बहुरि रावणका राजलोक सोई भया कमलनिका वन तामें ग्रीषम कर तप्तायमान जो वनका हाथी ताकी न्याई प्रवेश किया अर निःशंक भया राजलोकमें उपद्रव करता भया जैसे चंचल घोडा कदता फिरे तैसे चपलता कर परिभ्रमण किया काहूके कंठमें कपड़ेका रस्सा बनाय बांधा अर काहूके कंठमें उत्तरासन डार थम्भमें बांध बहुरि छोड दिया काहूको पकड अपने मनुष्यनसे कही याहि वेच श्रावो ताने हंसकर कही पांच दीनारनिको बेच आया । या भांति अनेक चेष्टा करी । काहूके काननमें घुघुरू घाले अर केशनिमें कटिमेखला पहिराई, काहूके मस्तक का चूडामणि उतार चरणनिमें पहिराया पर काहू को परस्पर केशनिकर बांधा अर काहूके मस्तकपर शब्द करते मोर बैठाये । या भांति जैसे सांड गायोंके समूहमें प्रवेश करे पर तिनको
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