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________________ ४२२ पध्र-पुराण कठिन है। ऐसे कह वे दोनों यक्षेन्द्र भव्यजीवनि विगै है वात्सल्य जिनका, प्रसन्न हैं नेत्र जिनके, मुनिनिके समूहोंके भक्त, वैशाबतमें उद्यमी जिनधर्मी अपने स्थानक गए । रामको उलाहना देने आए थे सो लक्ष्मणके वचननिकर लज्जावान भए, समभावकर अपने स्थानक गये सो जाय तिष्ठे । गौतमस्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक ! जोलग निर्दोषता होय तौलग परस्पर अतिप्रीति होय अर सदोषता भए प्रीतिभंग होय जैसे सूर्य उत्पातसहित होय तो नीका न लगे। इति श्रीरविणेणाचार्यविरचित महापमा गण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा बनिकागि रागणका निद्या साधना अर कपिकुमारनिका लंका गमन बहुरि पर्णभद्र मणिभद्रका कोप, क्रोधकी शान्ति वर्णन करनेवाला सत्तरवां पर्ण पर्ण भया ॥ ७० ॥ अथानन्तर पूर्णभद्र मणिभद्रको शान्तभाव जान सुग्रीयका पुत्र अंगद ताने लंकाविषै प्रवेश किया सो अंगद किहकंधकांड नामा हाथीपर चढा मोतिनिकी माला कर शोभित उज्ज्वल चमरनिकर युक्त ऐमा सोहता भया जैसा मेघमालाविर्षे पूर्णमासीका चन्द्रमा सोहै, अति उदार महासामंत लथा स्कंध इन्द्र नील आदि बडी शुद्धिकर मंडित तुरंगनिपर चढ़े कुमार गमनको उद्यमी भए अर अनेक पयादे चन्दन कर चर्चित हैं अंग जिनके तांबूलनिकर लाल अधर कांधे ऊपर खड़गवरे सुन्दर वस्त्र पहिरे स्वर्ण के श्राभूषणकर शोभित सुन्दर चेष्टा धरे आगे पीछे अगल बगल पयादे चले जांय है बीण यांमुरी मृदंगादि वादिन बाजे हैं नृत्य होता जाय है कपिवंशियोंके कुमार लंकाविष ऐसे गए जैसे स्वर्गपुरीमें असुरकुमार प्रवेश करें, अंगदको ल कामें प्रवेश करता देख स्त्रीजन परस्पर वार्ता करती भई-देखो ! यह अंगदरूप चन्द्रमा दशमुखकी नगीमें निर्भय भया चला जाय है । याने कहा प्रारम्भा ? आगे अब कहा होयगा ? या भांति लोक वात करें हैं। ये चले चले रावण के मंदिरमें गये सो मणियोंका चौक देख इन्होंने जानी ये सरोवर हैं सो त्रासको प्राप्त भए । बहुरि निश्चय देख मणियोंका चौक जाना तब आगे गए सुमेरुकी गुफा समान महारत्ननिकर निर्मापित मंदिरका द्वार देखा मणियोंके तोरखनिकर देदीप्यमान तहां अजन पर्वत सारिखे इंद्रनीलमणिनिके गज देखे, महास्कंध कुम्भस्थल जिनके स्थल दंत अत्यन्त मनोग्य अर तिनके मस्तकपर सिंहनिके चिन्ह जिनके सिरपर पूछ हाथियोंके कुम्भस्थलपर सिंह विकरालवदन तीक्ष्ण दाढ डरावने केश तिनको देख पयादे डरे । जानिए सांचे ही हाथी हैं तब भयकर भागे अतिविहन भए अंगदने नीके समझाए तब आगे चले। रावण के महलविणै कपिवंशी ऐसे जावें जैसे सिंह की गुफामें मृग जांय, अनेक द्वार उलंघ आगे जायचे को असमर्थ भए, घरोंकी रचना गहन सो असे भटके जैसे जन्मका अंधा भ्रमै, स्फटिकमणिके महल तहां आकाशकी आशंका कर भ्रमको प्राप्त भए अर इन्द्र नीलमणिकी भांति सो अन्धकारस्वरूप भासे मस्तकमें शिलाकी लागी सो आकुल होय भूमिमें पड़े, वेदनाकर व्याकुल हैं नेत्र जिनके, काहू प्रकार मार्ग पायकर आगे गये जहां स्फटिक मणिकी भीति सो धनों के गोडे फूटे ललाट फूटं दुखी भए तब उलटे फिरे सो मार्ग न पावें। आगे एक रत्नमयी स्त्री देखी। साक्षात् स्त्री जान वासे पूछते भए--सो वह कहा कहै ? तब महाशंकाके भरे आगे गये पिहल होय स्फटिक मणिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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