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सत्तरबां पर्यं कर हैं मुख जिनका, मध्याह्नके सूर्य समान तेज हैं नेत्र जिनके, होंठ डसते दीर्घ है काया जिनकी नाना वर्ण भयंकर शब्द महा विषम भेषको धरे, विकराल स्वरूप तिनको देखकर वानरवंशियों के पुत्र महा भयकर अत्यन्त विह्वल भए । वे देव क्षणमें सिंह क्षण में मेघ क्षणमें हाथी क्षण में सर्प क्षण में वायु क्षण में वृक्ष क्षण में पर्वत, मो इनकर कपिकुमार निको पीडित देख कटकके देव मदद करते भए । देवनिमें परस्पर युद्ध भया, लंकाके देव कटकके देवनिसे । अर कपिकुमार लंकाके सन्मुख भए तब यक्षनिके स्वामी पूर्णभद्र मणिभद्र महा क्रोधको प्राप्त भए दोनों यक्षेश्वर परस्पर वार्ता करते भए । देखो ये निर्दई कपिनिके पुत्र महाविकारको प्राप्त भए हैं। रावण तो निराहार होय Get free सर्व जगतका कार्य तज पोसे बैठा है सो ऐसे शान्तचित्तको यह छिद्र पाय पापी पीडा चाहे है, सो यह योधावोंकी चेष्टा नाही । यह वचन पूर्णभद्र के सुन मणिभद्र बोला-अहो पूर्णभद्र ! रावणका इन्द्र भी पराभव करिये समर्थ नाहीं, रावण सुन्दर लक्षणनिकर पूर्ण शांत स्वभाव है । तब पूर्णभद्र ने कही - जो लंकाको विघ्न उपजा है सो आपा दूर करेंगे, यह वचन कहकर दोनों धीर सम्यकदृष्टि जिनधर्मी यक्षनिके ईश्वर युद्धको उद्यमी भए सो वानरवंशिनिके कुमार और उनके पक्षी देव सब भागे । ये दोनों यक्षेश्वर महावायु चलाय पाषाण बरसावते भए र प्रलय कालके मेघ समान गाजते भए । तिनके जांघोंकी पवनकर कपिल सूके पानकी न्याई उडे तत्काल भाग गए । तिनके लार ही ये दोनों यक्षेश्वर रामके निकट उलाहना देने को आए । सो पूर्णभद्र सुबुद्धि रामको स्तुति कर कहते भए -राजा दशरथ महाधर्मात्मा तिनके तुम पुत्र अर अयोग्य कार्य त्यागी, सदा योग्य कार्यनिके उद्यमी, शास्त्र समुद्रके पारगामी, शुभ गुणनिकर सकलविषै ऊांचे, तिहारी सेना लंकाके लोकनिको उपद्रव करै । यह कहांकी बात ? जो जाका द्रव्य हरे सो ताका प्राण हरे है यह धन जीवनिके वाह्य प्राण हैं । अमोलिक हीरे वैडूर्य मणि मूंगा मोती पद्मराग मखि इत्यादि अनेक रत्ननिकर भरी लंका उद्वेग को प्राप्त करी । तब यह वचन पूर्णभद्र के सुन राजाका सेवक गरुडकेतु कहिये लक्ष्मण नीलकमल समान, सो तेजसे विविधरूप वचन कहता मया - ये श्री घुरुद्र तिनके राणी सीता प्राणहूत प्यारी - शीलरूप आभूषणकी वरणहारी वह दुरात्मा रावण छलकर हर लेगया ताका पक्ष तुम कहा करो, हे यक्षेन्द्र, हमने तिहारा कहा अपराध किया अर ताने कहा उपकार किया जो तुम भृकुटी बांकीकर र सन्ध्याकी ललाई समान अरुण नेत्रकर उलहना देने को आए सो योग्य नाहीं एती वार्ता लक्ष्मणने कही और राजा सुग्रीव अति भयरूप होय पूर्णभद्रको अर्घ देय कहता भया - हे यतेंद्र, क्रोध तजो श्रर हम लंकाविषै कछु उपद्रव न करें परन्तु यह वार्ता है रावण बहुरूपिणी विद्या साथै है सो जो कदाचित् ताको विद्या सिद्ध होय तो वाक सन्मुख कोई ठहर न सकै जैसे जिनधर्म पाठक के सन्मुख वादी न टिकै ताते वह क्षमावन्त होय विद्या साधै है सो ताको क्रोध उपजावेंगे जो विद्या साध न सके जैसे मिथ्यादृष्टि मोक्षको साथ न सके, तब पूर्णभद्र बोले- ऐसे ही करो परंतु लंका एक जी तृणको भी बाबा न करसकोगे अर तुम रावणके अंगको बाथा मत करो र अन्य बातनिकर क्रोध उपजावो परन्तु रावण अतिदृढ है ताहि क्रोध उपजना
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