________________
४२०
पद्म-पुराण
1
हू चिंता नाहीं अर अक्षादिक अनेक योवा युद्ध में हते गए, हस्त प्रहस्त सेनापति मारे गए तथापि लंकापतिको शंका नाहीं, ऐसा चितवन करते परस्पर वार्ता करते नगर में पैठे तथा विभीषणका पुत्र सुश्रूषणं कपिकुमारनि को कहता नया तुम निर्भय लंका में प्रवेश करो, बाल वृद्ध स्त्रीनिको तो कछु न कहना पर सबको व्याकुल करेंगे। तब याका वचन मान विद्याधर कुमार महा उद्धत कलहप्रिय आशीष समान प्रचण्ड व्रतरहित चपल चञ्चल लंका में उपद्रव करते भए । सो तिनके महाभया नक शब्द सुन लोक अति व्याकुल भए अर रावणके महल हू में व्याकुलता भई जैसे तीव्र पत्रनकर समुद्रक्षोभको प्राप्त होय तैसे लंका कपिकुमारनिसे उद्वेगको प्राप्त भई । रवणके महिलाविषै राजatafat उपजी । कैसा है रावणका मन्दिर १ रत्ननिकी कांतिकर देदीप्यमान है अर जहां मृदंगादिकके मंगल शब्द होवे हैं जहां निरन्तर स्त्रीजन नृत्य करें हैं और जिनपूजाविषै उद्यमी राजकन्या धर्म मार्ग में आरूढ सो शत्रु सेना के क्रूर शब्द सुन आकुलता उपजी, स्त्रीनिके आभूषणनिके शब्द होते भए मानों वीणा बाजे हैं सब मन में विचारती भई- इन जानिऐ कहा होय ? या भांति समस्त नगरीके लोग व्याकुलताको प्राप्त होय बिह्वल भए तब मन्दोदरीका पिता राजा विद्याधरनिवि दैत्य कहावे सो सब सेनासहित वक्तर पहिर आयुध धार महा पराक्रमी युद्धके अर्थ उद्यमी होय राजद्वार आया जैसे इन्द्रके भवन हिरणकेशी देव श्रावै तच मन्दोदरी पितासे कहती भई - हे तात ! जा समय लंकेश्वर जिन मन्दिर पधारे तासमय आज्ञा करी जो सबलोक सम्ररूप रहियो कोई कषाय मत करियो तातैं तुम कषाय मत करो। ये दिन धर्मध्यानके हैं सो धर्म सेव और भांति करोगे तो स्वामी की आज्ञा भंग होयगी श्रर तुम भला फल न पावोगे । ये वचन पुत्री के सुन राजा मय उद्धतता तज नहा शांत होय शस्त्र डारते भए जैसे अस्त समय सूर्य किरणों• कों तजे, मणियों के कुण्डलनिकर मंडित और हारकर शोभे है वक्षस्थल आका, अपने जिन मन्दिरमें प्रवेश करता भया अर ये वानरवंशी विद्याधरनिके कुमारनिने निज मर्यादा तज नगरका कोट भंग किया वज्रके कपाट तोडे, दरवाजा तोडे ।
1
अथानन्तर इनको देख नगरके बासियोंको अति भय उपजा, घर घर में ये बात होय हैं। भजकर कहां जाइये ? ये आए बाहिर खडे मत रहो भीतर धसो, हाय मात यह कहा भया ? हे तात देखो, हे भ्रात हमारी रक्षा करो, हे आर्यपुत्र महाभय उपजा है ठिकाने रहो | या भांति नगरीके लोक व्याकुलताके वचन कहते भए । लोक भाग रावणके महिलमें आये अपने वस्त्र निमें लिये विह्वल बालकनिको गोद में लिये स्त्री जन कांपती भागी जाय हैं, कैएक गिर पड़ीं सो गोड़े फूट गये, कैएक चली जाय हैं हार मोती बिखरे हैं जैसे मेघमाला शीघ्र जाय तैसे जाय हैं त्रासको पाई जो नेत्र जिनके र ढीले हो गये हैं केशनिके वन्ध जिनके अर कोई भयकर गई । या भांति लोकनिको उद्वेग रूप महा भयभीत देख जिनशासन के मन्दिर के सेवक अपनी पक्ष के पालनेको उद्यमी करुणावन्त जिन शासन के प्रभाव करनेको उद्यमी भए । महा भैरव आकार घरे शान्तिनाथके मन्दिरसे निकसे, नाना भेष धरे विकराल हैं दाढ जिनकी, मयं
टूट गए सो बडे बडे हिरणी ता समान हैं प्रीतमके उरसे लिपट देव श्रीशांतिनाथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org