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सत्तरवा पर्ण कार्य तज सूर्यकी कांतित हू अधिक है कांति जिनकी ऐसे जे जिनमंदिर तिनविणे तिष्ठे, निर्मल भावकर युक्त सयम नियमका साधन करते भये ।। इति श्रीरभिषणाचार्यविरचि: महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा नचनिकागि लंकाके लोगनिका
अनेकानेक नियम धारण वर्णन करनेवाला उनहत्तरगां पर्व पूर्ण मया ॥६॥
अथानन्तर श्रीरामके कटक में हलकारोंके मुख यह समाचार आए कि रावण बहुरूपिणी विद्याके साथनेको उद्यमी भया श्रीशांतिनाथके मन्दिर में विद्या साथै है, चौबीस दिनमें यह बहुरूपिणी विद्या सिद्ध होयगी । यह विद्या ऐनी प्रबल है जो देवनिका मद हरे सो समस्त कपिध्वजनिने यह विचार किया कि जो वह नियममें बैठा विद्या साधे है ताको क्रोध उपजावें जो ताकों यह विद्या सिद्ध न होश तातें रावणको कोष उपजाबनेका यन्न करना, जो वाने विद्या पिद्ध कर पाई तो इन्द्रादिक देवनिकरहू न जीता जाय, हम सारिखे रंकनिकी कहा बात ? तब विभीषण कही-जो कोप उपजारने का उपाय को शीघ्रही करों। तब सबने मंत्र कर रामसे कहा कि लंका लेनेका यह समा है । रावणके कायमें विघ्न करिए अर अपने को जो करना होय सो करिए तब कपिध्वजनिके यह वचन सुन श्रीरामचन्द्र महाधीर महा पुरुषनिकी है चेष्टा जिनकी, तो कहते भए-हो विद्याधर हो ! तुम महामूढताके वचन कहो हो, क्षत्रिनिके कुलका यह धर्म नाही जो एसे कार्य करें। अपने कुलकी यह रीति है जो भपकर भाजै ताका वध न करना तो जे नियमधारी जिनमन्दिग्में बैठे हैं तिनको उपद्रव कैसे करिए यह नीचनिके कर्म हैं सो कुलवंतनिको योग्य नाहीं । यह अन्याय प्रवृत्ति क्षत्रियनिकी नारी, कैले हैं क्षत्री ? महामान्यभाव अर शास्त्रकर्ममें प्रवीण। यह वचन रामके सुन सबने विचारी जो हमारा प्रभु श्रीराम महा धर्मधारी है, उत्तम भावका थारक है सो इनकी कदाचित् हू अथवर्ष प्रवृत्त न होयगी तब लक्ष्मण की जानमें इन विद्याधरमिने अपने कुमार उपद्र को विदा किए अर सुग्रीवादिक बड़े बडे पुरुष आठ दिनका नियम धर तिष्ठे पर पूर्ण चन्द्रमा समान है यदन जिनके क ल समान नेत्र नाना लक्षणके थरणहारे सिंह व्याघ्र बराह गज अष्टाप: इनकर युक्त जे रथ तिनविणै बैठे तथा विमाननिमें बैठे परम आयुथनिको थरे कपियों के कुमार रावणको कोप उपजायवेका है अभिप्राय जिनके मानों यह असुरकुमार देव ही हैं--प्रीतंकर दृढरथ क्षन्द्राभ रतिवर्थन वातायन गुरुभार सूर्यज्योति महारथ मामंतवल नंदन सर्वदृष्ट सिंह सर्वप्रिय नल नील सागर घोषपुत्र सहित पूर्ण चन्द्रमा स्कंध चन्द्र मारीच जांचव संकट समाथि बहुल सिंहकट चन्द्रासन इ द्रमणि बल तुरंग सब इत्यादि अनेक कमार तरंगनिके रथ चढे अर अन्य कैयक सिंह बाराह गज व्याघ्र इत्यादि मनहूते चंचल जे बाहन तिनपर चढे पयादनिके पटल तिनके मध्य महातेजको थरें नाना प्रकारके चिन्ह तिनकर युक्त हैं छन्त्र जिनके अर नानाप्रकारकी ध्वजा फहरे हैं जिनके, महा गंभीर शब्द करते दशोदिशाको श्राच्छादित करते लंकापुरीमें प्रवेश करते भए । मनविणे विचार करते भए-बडा अश्चर्य है जो लंकाके लोक निश्चित तिष्ठे हैं। जानिये है कछू संग्रामका भय नाही, अहो लंकेश्वरका बडा श्रीर्य महागंभीरता देखहु जो कुम्भकर्णसे भाई अर इन्द्रजीत मेघनाथसे पुत्र पकडे गए हैं तो
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